कल, साँझ ढ़ले, बहती सरिता ने, अँगड़ाई ली, और..आकर अपने, निर्मल जल से, धरती के पग पखारने लगी, कल, साँझ ढ़ले, सूरज की सिंदूरी किरणों ने, शगुन की मेंहदी रच दी, दहलीज पर मेरे, चाँदनी जब आयी आँगन मे, खिल उठी कुमुदिनी, और..महकने लगी, मन की बगिया मेरी, कल, साँझ ढ़ले, सूरज की सिंदूरी किरणों ने, शगुन की मेंहदी रच दी, दहलीज पर मेरे, चाँदनी जब आयी आँगन मे, खिल उठी कुमुदिनी, और..महकने लगी,