#OpenPoetry रखा नौ माह कोख में,पिलाया खून छाती का तुझमें जान फूंकी की है,तू बूत था एक माटी का बिना तेरे कुछ बोले वो,सब कुछ जान लेती थी तू भूखा है या सोएगा,पल में पहचान लेती थी सुलाकर तुझको आँचल में,रात भर लोरी गाती थी वो माँ ही थी जो रह भूखी,क्षुधा तेरी मिटाती थी कदम दो चार चलने पर तेरे,वो झूम जाती थी ज़रा सी चोट लगने पर वो माँ आँसू बहाती थी तेरे रोने मचलने पर पर,तेरे सदके कराती थी मज़ारों और मंदिर में,वो नंगे पाँव जाती थी पहली बार जब तूने उसे,माँ कह बुलाय था खुशी से छलकी थी आँखे,गला उसका भर आया था हुई बूढ़ी है अब वो माँ,समय का चक्र बदला है जवां हो अब वो बेटा,कमाने घर से निकला है है अचरज़ बेटे को याद,उसकी न आती है कंपकपाते हाथ उसके,वो माँ आँसू बहाती है कोइ पूंछे जो उससे अब,कि तेरा बेटा कैसा है कहती मुस्कराकर वो न कोई उसके जैसा मेरे बेटे के होते मुझे कोई गम नही है मेरा बेटा किसी श्रवण से कम नही है लिखूँ अब और क्या माँ को कलम, अब साथ ना देती माँ का मातृत्व लिखने को,उम्र है ये बहुत छोटी #OpenPoetry माँ