मैं वनवासी।। तेरा मेरा कर भेदहीन, मैं हूँ वनवासी शब्दों का। हर आखर में प्राण भरूँ मैं निर्बल निःशब्दों का। तुम अपनी बातें कह जाते, हो सबल विलासी, उनकी बातें कौन करे जो हक का अभिलाषी। शब्द कहाँ कब फूटे मुख से पेट पकड़ जो सोये, उस मां का अपराध बताओ जो है कोने रोये। बच्चे बिलखते रोटी को, सूखा मां का दूध है, तुम ही बोलो उसका किसने लिया कब सूध है। एक निवाला पाने को जो दर दर ठोकर खाते हैं, रात हुई, ओढ़ आसमा, फुटपाथों पे सो जाते हैं। एक नहीं, है फिक्र किसे इन उपजते जत्थों का। तेरा मेरा कर भेदहीन, मैं हूँ वनवासी शब्दों का। तेरा नाथ है मंदिर बैठा, है उनका कोई नाथ नहीं, धन के ही सब साथी हैं, निर्धन के कोई साथ नहीं। दूध चढ़ा पत्थर पर, दुग्धाभिषेक तुम करते हो, अंतर्मन से पूछो, क्या काम नेक तुम करते हो। गीता पढ ली, कुरान पढ़ी, गुरुग्रंथ का पाठ किया, शब्दों को ही रटते रहे, अर्थ कब आत्मसात किया। पीछे मुड़ तुम देखो, सोचो अपने अतिरेक पर, प्रश्नचिन्ह क्यूँ लगा रहे, तुम स्वयं के विवेक पर। धर्म निभाओ तुम अपना, साथ न लो बस लब्जों का, तेरा मेरा कर भेदहीन, मैं हूँ वनवासी शब्दों का। शब्द मेरे तीक्ष्ण बड़े, कुछ कष्ट तुम्हे दे जाएंगे, पर तेरे जीने का मतलब स्पष्ट तुम्हे दे जाएंगे। भाव पड़े संकुचित, उनका जरा विकास तो हो, भान रहे याद तुम्हे तेरा अपना इतिहास तो हो। धरा की महत्ता मां से बड़ी, इसने ही तो पाला है, इस हाड़ मांस के पंजर में रक्त बीज जो डाला है। फ़र्ज़ कहो या कर्ज़ कहो, तुमको ही तो निभाना है, इस पौरुष का दम्भ क्या जो मिट्टी में मिल जाना है। तू नया संसार बना तज मोह ताज और तख्तों का तेरा मेरा कर भेदहीन, मैं हूँ वनवासी शब्दों का। ©रजनीश "स्वछंद" मैं वनवासी।। तेरा मेरा कर भेदहीन, मैं हूँ वनवासी शब्दों का। हर आखर में प्राण भरूँ मैं निर्बल निःशब्दों का। तुम अपनी बातें कह जाते, हो सबल विलासी, उनकी बातें कौन करे जो हक का अभिलाषी। शब्द कहाँ कब फूटे मुख से पेट पकड़ जो सोये,