रोज़ सिसकती हैं आहें , जलता है बदन । तपिश के अंगारों से , फिर कहां तपता है कफ़न । ओढ़ लाचारी की चादर , झांकता है जब जिस्म । मुफ़लिसी की इस सौगात को, फिर आंकता है गम । रोज़ सिहरती है जिंदगी विचलित होता है मन , ओस की झरती बूंदों को भी कहां रोकता है, टाट में लगा पैबंद । सुबह हो या सांझ, दिखता है बस अभाव । कहीं मनता है जश्न, तो कोई ढूंढता है अलाव । रश्मि वत्स ©Rashmi Vats #सिसकती जिंदगी#कफ़न#दर्द#हसरते