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रोज़ सिसकती हैं आहें , जलता है बदन । तपिश के अंगार

रोज़ सिसकती हैं आहें ,
जलता है बदन ।
तपिश के अंगारों से ,
फिर कहां तपता है कफ़न ।

ओढ़ लाचारी की चादर ,
झांकता है जब जिस्म ।
मुफ़लिसी की इस सौगात को,
फिर आंकता है गम ।

 रोज़ सिहरती है जिंदगी
विचलित होता है मन ,
ओस की झरती बूंदों को भी कहां रोकता है,
 टाट में लगा पैबंद ।

सुबह हो या सांझ,
दिखता है बस अभाव ।
कहीं मनता है जश्न,
तो कोई ढूंढता है अलाव ।

रश्मि वत्स

©Rashmi Vats #सिसकती जिंदगी#कफ़न#दर्द#हसरते
रोज़ सिसकती हैं आहें ,
जलता है बदन ।
तपिश के अंगारों से ,
फिर कहां तपता है कफ़न ।

ओढ़ लाचारी की चादर ,
झांकता है जब जिस्म ।
मुफ़लिसी की इस सौगात को,
फिर आंकता है गम ।

 रोज़ सिहरती है जिंदगी
विचलित होता है मन ,
ओस की झरती बूंदों को भी कहां रोकता है,
 टाट में लगा पैबंद ।

सुबह हो या सांझ,
दिखता है बस अभाव ।
कहीं मनता है जश्न,
तो कोई ढूंढता है अलाव ।

रश्मि वत्स

©Rashmi Vats #सिसकती जिंदगी#कफ़न#दर्द#हसरते
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