महंँगाई और हम बन गए हैं एक ही राह के मुसाफिर सनम, आगे-आगे चलती है महंँगाई उसके पीछे-पीछे भागते हैं हम। जिंदगी बिखर जाती है महंँगाई को समझने में समझ नहीं आती है, गृहस्थी कैसे चलाए कोई महंँगाई है कि बढ़ती ही जा रही है बलम। नमस्कार लेखकों/कातिबों 1:आज के इस विषय पर अपने बहुमूल्य विचार रखें। 2: आपको केवल 4 पंक्तियाँ लिखनी हैं। वर्तनी एवं विचार की शुद्धता बनाए रखें। 3: आप हमारी कोट को हाइलाइट करें।