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मित्र अनमोल धन, लुटे न करो जतन। निज प्राण तज के भी

मित्र अनमोल धन, लुटे न करो जतन।
निज प्राण तज के भी, धन ये बचाइए।।

मित्रता निस्वार्थ करो, सदा परमार्थ करो।
परिभाषा मित्रता की, नूतन बनाइए।।

मन का है अनुबंध, अटूट रहे संबंध।
बीज अविश्वास का न, मन कभी लाइए।।

निर्धन हो या धनी, सजात विजात मित्र।
सर्वस्व मित्र पर ही, मित्रता लुटाइए।।१।।

छोड़िए कभी न साथ, रखिए सदा सनाथ।
ध्रुव तारा बन राह, मित्र को दिखाइए।।

परम सनेही मित्र, गुणवान सचरित्र।
भाग्य से मिले जो यदि, मित्र बन जाइए।।

लहू की बनाई नहीं, सहोदर भाई नहीं।
मन का जुड़ाव है ये, मन से निभाइए।।

मित्र जो विलाप करे, मित्र ही संताप हरे।
मित्रवत धर्म सभी, मित्र से निभाइए।।२।।

मित्र भाई से भी श्रेष्ठ, कनिष्ठ रहे या ज्येष्ठ।
सुख-दुख मित्रता में, सुनिए सुनाइए।।

गुण अवगुण सही,एक हो स्वभाव नहीं।
निज भाव शुद्ध रख,संग चले जाइए।।

पतझड़ या बसंत, सुख या दुःख अनंत।
जो भी मिले मित्र संग, हँसके बिताइए।।

सुख की हो बरसात, दुःख के या झंझावात
मित्रता का साथ हाथ, कभी न छुड़ाइए।।३।।
              
रिपुदमन झा 'पिनाकी' 
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

©Ripudaman Jha Pinaki #मित्रता
मित्र अनमोल धन, लुटे न करो जतन।
निज प्राण तज के भी, धन ये बचाइए।।

मित्रता निस्वार्थ करो, सदा परमार्थ करो।
परिभाषा मित्रता की, नूतन बनाइए।।

मन का है अनुबंध, अटूट रहे संबंध।
बीज अविश्वास का न, मन कभी लाइए।।

निर्धन हो या धनी, सजात विजात मित्र।
सर्वस्व मित्र पर ही, मित्रता लुटाइए।।१।।

छोड़िए कभी न साथ, रखिए सदा सनाथ।
ध्रुव तारा बन राह, मित्र को दिखाइए।।

परम सनेही मित्र, गुणवान सचरित्र।
भाग्य से मिले जो यदि, मित्र बन जाइए।।

लहू की बनाई नहीं, सहोदर भाई नहीं।
मन का जुड़ाव है ये, मन से निभाइए।।

मित्र जो विलाप करे, मित्र ही संताप हरे।
मित्रवत धर्म सभी, मित्र से निभाइए।।२।।

मित्र भाई से भी श्रेष्ठ, कनिष्ठ रहे या ज्येष्ठ।
सुख-दुख मित्रता में, सुनिए सुनाइए।।

गुण अवगुण सही,एक हो स्वभाव नहीं।
निज भाव शुद्ध रख,संग चले जाइए।।

पतझड़ या बसंत, सुख या दुःख अनंत।
जो भी मिले मित्र संग, हँसके बिताइए।।

सुख की हो बरसात, दुःख के या झंझावात
मित्रता का साथ हाथ, कभी न छुड़ाइए।।३।।
              
रिपुदमन झा 'पिनाकी' 
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

©Ripudaman Jha Pinaki #मित्रता