उगते सूरज को देखता हूँ तो नज़र गढ़ जाती है उसके बाद खुद से उम्मीद और बढ़ जाती है मन करता है आसमान छू लूं पर हालातों की हथकड़ी हाथों में अकड़ जाती है ये कैसी बेल है ख्वाहिशों की जो कभी रुकती नहीं हैं थोड़ा खाद पानी मिलते ही उचाईयों को चढ़ जाती है लोग कहते हैं के इतना दौड़ भाग क्यों करते हो सुकून से रहा करो मुझे सुकून कमाने के लिए इतना सब करने की ज़रूरत पड़ जाती है आराम तो कर लूँ पर इन आँखों को कैसे समझाऊँ एक गलती से बंद हो जाए तो दूसरी पहले वाली से लड़ जाती है किसीके लिए रुकना , इंतज़ार करना अब हो नहीं पाता मुझसे वो रेल हो गया हूँ जो एक प्लेटफार्म पे दो मिनट होते ही आगे बढ़ जाती है...... ©Dr Ziddi Sharma #mohitsharma #ziddisharma #MohitSharmaVidrohi