#OpenPoetry क्या कहूँ, जो बात थी वो निकल गयी, वक्त की रेत हाथ से फिसल गयी जब वक्त था तो आँखें बंद करली, जुबाँ ने उसकी स्वाद चख ली अब आँखें खोलूं तो अंधेरा, जुबाँ पे मेरे दर्द तेरा दर्द भी तो मैंने माँगा, क़सूर क्या दूँ इसमें तेरा क्या कहूँ उस वक्त को मैं, जिस वक्त तूने हाथ थाम्हा जिस अगन की तपस से भी, सहम उठती रूह तेरी उस अगन की कोख में, मैंने तुझे हर बार खिंचा क्या कहूँ अब शब्द कम हैं, जिंदगी में वक्त कम हैं रास्ते अंजान हैं सब, दारुण है लगती हर गली अब सांस लेना भी कठिन अब हाथ तेरा खोजता मन, हर गली में चीखता मन आंखें बरसती खार वो अब, जो कभी सोयी हुयी थी नींद भी आती नही अब, ख़्वाब भी रूठे हुए हैं क्या कहूँ रुक सा गया हूँ, चीख़ कर अब थक गया हूँ इस वक्त ने ऐसे मरोड़ा, तुझसे जुड़ा हर तार मेरा जाती नही आवाज मेरी या अब भी है तुझपे मेरी उन ख़ताओं का फेरा? सुन जरा ऐ वक्त तू भी, रुक गया, हारा नही हाथ थाम्हा था जहाँ, हर रोज जाता हूँ वहीं जागती उम्मीद अब भी, मिलेगी वो फिर यहीं मिलेगी वो फिर यहीं.... #मिलेगी_वो_फिर_यहीं✍️