पुलकित मन के स्पन्दन का नित निशा संग अनुनाद रहा, उगते सूरज की किरणों से एक बैर सा पाला है मैंने! दिन कोलाहल से भरा हुआ है रात पियारी घोर शान्त, निर्बाध विचरता रहता हूँ लेता विराम जब हो विहान! एकाग्रशील है मन मेरा अब सहज हो रहा चिन्तन भी, साकार 'कल्पना' करने को तादात्म्य हो रहे तन-मन भी! जग कहता जिनको निशाचरी वो दिवास्वप्न के मारे हैं, रातें उजली दिन कारे हैं ये 'रातों के उजियारे' हैं! !! रातों के उजियारे !! पुलकित मन के स्पन्दन का नित निशा संग अनुनाद रहा, उगते सूरज की किरणों से एक बैर सा पाला है मैंने! दिन कोलाहल से भरा हुआ