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"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य

"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य : एक कलंक" 
              हमारे समाज के नायकों के अतीतीय जीवन वृत्तान्तों को साहित्य अथवा लेखन जगत उनके वास्तविक व गरिमापूर्ण जीवन के मौलिक अथवा मूल अधिकारों को लेकर रूढ़िवादी मनोदशाओं में पूर्वाग्रहों का शिकार क्यों बनाता रहा है? सत्य के कटु होने को साहित्यिक स्वीकार्यता प्रदान करना जायज़ है, परन्तु उसे मिथ्यावाद के शिलखण्डों पर किसी विशिष्ट वर्चस्ववाद के अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति हेतु बलात्लेखित किया जाना कदापि नहीं। बात आदिकाल की हो या रीतिकाल की हो अथवा मध्य आधुनिक एवं वर्तमान की हो, समस्त कालखण्डों के
"कृष्ण जीवन में राधा और रुक्मिणी तुलनात्मक साहित्य : एक कलंक" 
              हमारे समाज के नायकों के अतीतीय जीवन वृत्तान्तों को साहित्य अथवा लेखन जगत उनके वास्तविक व गरिमापूर्ण जीवन के मौलिक अथवा मूल अधिकारों को लेकर रूढ़िवादी मनोदशाओं में पूर्वाग्रहों का शिकार क्यों बनाता रहा है? सत्य के कटु होने को साहित्यिक स्वीकार्यता प्रदान करना जायज़ है, परन्तु उसे मिथ्यावाद के शिलखण्डों पर किसी विशिष्ट वर्चस्ववाद के अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति हेतु बलात्लेखित किया जाना कदापि नहीं। बात आदिकाल की हो या रीतिकाल की हो अथवा मध्य आधुनिक एवं वर्तमान की हो, समस्त कालखण्डों के