#कर्ण# त्याग,तप की प्रतिमूर्ति और था वह स्वाभिमानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। जन्म लेते ही राधेय को आँचल मिला था जल का, कहाँ पता था उत्तर देना होगा नियति के छल का। सोचा उसने कुरु वंश को अपना कौशल दिखलाऊँ, निज शरासन से अपने शौर्य का, परिचय जग को करवाऊं।। मगर तभी सभा में एक आंधी सी आई, योग्यता को निगल गयी, जात-पात की खाई।। उसी क्षण कर्ण ने कौन्तेय से प्रतिस्पर्धा थी ठानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। प्रतिस्पर्धा की चाह में वह भटक रहा था वन में, ज्वार सा उमड़ रहा था रक्त उसके तन में।। अपने कौशल से उसने परशु को गुरुता करवायी थी धारण, मन ही मन आनंदित थे दोनों होने वाला था व्रत का पारण।। पीड़ाओं पर विजय प्राप्त कर भी वह था हारा, गुरु ने श्राप दिया रण में भूलोगे ज्ञान सारा।। गुरु को कर प्रणाम फिर उसने अपनी भूल मानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। दे रहे थे अर्घ्य सूर्यपुत्र पिता को जब जल से, मांग लिया देवराज ने कवच-कुंडल तब छल से। देवराज ने यह सोच लिया अब तो यह निर्बल है, किन्तु सूर्यपुत्र का तेज बिन इनके भी और प्रबल है।। बज उठी दुदुम्भी रण में सूर्यपुत्र कर रहे युद्ध की तैयारी, कितने वर्षो बाद कौन्तेय वध की अब आई है बारी। भीषण युद्ध की कालिमा अब दोनों ओर है छानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। फंसा गया अचानक रण में जब सूर्यपुत्र का रथ, केशव ने फिर दिखलाया पार्थ को वहीं विजय का पथ । असमंजस में थे पार्थ नियति के इस खेल से, मन व्यथित था पार्थ का, वास्तविकता के इस मेल से।। संधान किया पार्थ ने फिर गांडीव का और झोंक दिया अपना बल सारा, इस प्रकार रण में कर्ण, गया भ्राता के हाथों मारा।।। वर्षों बीत गए फिर भी अब तक न बदली कहानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। -सौरभ दुबे "संकल्प" ©Saurabh Dubey ##कर्ण