(सजनी) श्रृंगार में खूब दिखती हो। श्रृंगार की तू अवतारी हो।। मृगनयनी, सजनी लगती हो। कुसुम की तरह तू मन में खिलती हो।। श्रृंगार में खूब दिखती हो। श्रृंगार में क्या लगती हो। रूप तेरा जो गोरा है।। जोवन क्या तू महकाती हो। मन में क्या खूब भाती हो।। श्रृंगार में खूब दिखती हो। रूप तेरा जो गोरा है। चेहरा तेरा क्या चमकीला है।। ओंठों में लाली छायी है। कंठ की क्या मधुर वाणी है।। श्रृंगार में खूब दिखती हो। आँखों की काजल क्या चुभती है। माथे की बिंदी क्या खिलती है।। लम्बी -लम्बी जुल्फें क्या लहराती है। कानों की बाली क्या खूब दिखती है।। श्रृंगार में क्या खूब दिखती हो। हाथों की चूरी क्या खूब खनकती है। पैरों की पायल क्या छनकती है।। बालों का गजरा क्या खूब गमकता है। मन में मेरे झनकार सी उठती है।। श्रृंगार में खूब दिखती है। घर को खूब सजाती हो। मन को क्या खूब भाती हो।। दिल में जो तुम बसती हो। अपना रंग बिखेरती हो।। श्रृंगार में खूब दिखती हो। तुझे क्या खूब निहारा हूँ। अपने बाँहों से लगाया हूँ।। तेरे प्यार में ही तो जीता हूँ। रग-रग में जो तू समायी हो।। श्रृंगार में क्या खूब दिखती हो। क्या दिव्य तेरा मुखरा है। नैनों में मेरे दिखती है।। प्राणों में तू रहती है। संगीत मन में समायी है।। श्रृंगार में खूब दिखती हो। ©(संगीत कुमार /जबलपुर) ✒️स्व-रचित कविता 🙏🙏 (सजनी) श्रृंगार में खूब दिखती हो। श्रृंगार की तू अवतारी हो।। मृगनयनी, सजनी लगती हो। कुसुम की तरह तू मन में खिलती हो।। श्रृंगार में खूब दिखती हो।