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अक्सर लिख देती हूं आवाज तुम्हारी।। सुनी थी जो कॉले

अक्सर लिख देती हूं आवाज तुम्हारी।।
सुनी थी जो कॉलेज के पुस्तकालय  में।।
फिर हर दिन अब पेशी होने लगी ।।
मसहूर इश्क़ के न्यायालय में।।
जज बन बैठा सारा जमाना।।
सबूत में पेश हर शाम किया।।
जब सवाल तुमसे पूछा गया।।
तुमने मेरे नाम को सरेआम किया।।
मैं तो मुजरिम बन गई इस जमाने के लिए।।
फिर बोली कुछ बोलो खुद को बचाने के लिए।।
होठो पे मुस्कान और आँखों मे आशु ले के।।
मैं बोली सब मंजूर है बस सजा दे दे।

©Nikunj Manjari
  तुम्हारी याद
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Modern Gyani

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तुम्हारी याद #कविता

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