वक्त का भी , कैसा चलन ये। स्वांस जैसे , चलते चलते, नासिका पर ही ठहरी। भूख जैसे , कूदती - उछलती, उदर में ही ठहरी। कंठ भी सूखा हुआ है, कितना बुझाएं? प्यास भी सागर सी गहरी। जागते नयन जैसे, नींद को सुला रहे हैं। पुकारते कितना उसे वे, मगर नींद भी बन गई है बहरी। ख्वाब तो भ्रम में हैं बस, हकीकत के खेत खलिहानों से थे, बन गए बस बनावटी से, लग रहें है अब वे भी शहरी। वक्त भी रेत सी, सरकती गई, खिसकती गई, कस के चाहे कितना ही ऐठों, मुठ्ठी में आखिर कब ये ठहरी? शुभ रात्रि।