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#सोचता हूं टकराते रहे किनारे रात भर जगाने को भू

#सोचता हूं

टकराते रहे किनारे  रात भर जगाने को 
भूजती शमा तले एक उम्मीद दिखाने को
एक घरौंदा उजड़ा तो दबी सिसकियां
ख्वाहिशों की शक्ल में बही कश्तियां

अर्श पर काबिज़ सपनों ने खुदकुशी की
मुलायम कंधे ने अनजाने ही पनाह दी

ऐस में लगोगी गले ये बेशक उम्मीद थी
आंखें खुली टूटा तिलिस्म और दिल्लगी छीन ली
 अपनापन न दिखा उनके आख़िरी सन्देश में 
 भटकते रहे तमाम उम्र हम बेगानो के भेष में

- कवि अनिल #kavianilkumar
#सोचता हूं

टकराते रहे किनारे  रात भर जगाने को 
भूजती शमा तले एक उम्मीद दिखाने को
एक घरौंदा उजड़ा तो दबी सिसकियां
ख्वाहिशों की शक्ल में बही कश्तियां

अर्श पर काबिज़ सपनों ने खुदकुशी की
मुलायम कंधे ने अनजाने ही पनाह दी

ऐस में लगोगी गले ये बेशक उम्मीद थी
आंखें खुली टूटा तिलिस्म और दिल्लगी छीन ली
 अपनापन न दिखा उनके आख़िरी सन्देश में 
 भटकते रहे तमाम उम्र हम बेगानो के भेष में

- कवि अनिल #kavianilkumar