बचपन में क्या- क्या थे सपने सजाए बचपना था, परिस्थिति को महसूस ना कर पाए जिनकी पहुंच सर को ढकने तक की नहीं वो चांद-तारे कहां से तोड़ लाए दिन तो ऐसे हीं निकल जाता है सोच में सुबह को जैसे-तैसे हुआ शाम को कहां से आयेगा खाना कुछ लेकर ना आया ना लेकर है जाना फिर भी नहीं बदला जमाना चाह कर भी खुद के लिए कुछ कर पाते नहीं लाख कोशिश कर लें पर हालातों से पीछा छुड़ा पाते नहीं खुद के नजरों को समाज के नजरों से मिला पाते नहीं वे इन सभ्य समाजों की तरह चेहरे बदल पाते नहीं इनके हालातों से कौन है अनजाना फिर भी नहीं बदला जमाना। कविता -अंतिम भाग ©Prashant yadav #DIL#KE#ALFAZ#JINDAGI#PHOOTPATH#KI #vacation