तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या! स्वप्न में भी है चित्र तुम्हारे, सुधा तुम्हीं, ये चित्त भी हारे! विरह सखी, त्याग में क्षण क्षण, नयन को अब अश्रु न प्यारे! ये दुख ही मेरी है निधि, कोई अधिक मनोहर निलय क्या? कण कण में जीवित तुम मेरे, श्वासों में, उर, इस दर्पण में, अब कैसे रहूं पृथक तुम्हीं से? असीमित, अनन्त हो तुम मुझमें। कहो ना प्रेम यूहीं बिसुरने मेरे प्रेम का है कोई प्रतिदेय क्या? जगते हो नयन में तुम हर बेला ये विरह क्या, क्या ही मिलन बेला मै असंग नहीं तुमसे और न तुम मुझसे, फिर क्यों ये दुख का मेला? उर मेरा जो है पास तुम्हारे, हमारे हृदय का हुआ न विनिमय क्या? स्वप्न में भी है चित्र तुम्हारे, सुधा तुम्हीं, ये चित्त भी हारे! विरह सखी, त्याग में क्षण क्षण, नयन को अब अश्रु न प्यारे! ये दुख ही मेरी है निधि, कोई अधिक मनोहर निलय क्या? कण कण में जीवित तुम मेरे,