_सुहाग रात_ एहसास हुआ उस रात को ,तुझमें कितनी नशा है, जो फासले नज़दीक थे,इन लबों के बीच में, धड़कनें बढ़ रही थी,रात की गहराई में, डूब रहा था मैं तेरे हुस्न-ओ-शबाब में , बरस रही थी स्वच्छ चाँदनी उन बेदाग बदन पर, थी शरारत तुझमें भी,जो दिख रही थी तेरी आँखों में, तू है एक शोख हसीना,है मन मेरा प्यासा, घूल रही थी तेरी खुशबू,उन खामोश फिज़ाओं में, बेशर्म थे वो हवा के झोखें,सरक गयी जो चुनरी तेरी, उलझे हुए थे तेरे इरादे ,तू लिपट गयी मेरी बाहों में, था वो वक़्त मुकर्रर,पर रात भी दिवानी थी, कई शिकायतें होतीं तुझसे,गर डूबता न तेरे रंग-ए-इश्क़ में, मिट रही थी ख्वाइशें मेरी,तेरे चुंबन की बरसात से, पा रहा था सुकूँ मैं,तेरे जिस्म के स्पर्श से, इस जुम्बिश को देख कर चाँद भी शर्मा गया , हो गये थे दो जिस्म एक ,जो सुहाग की उस रात में।। -भास्कर बेदी मेरा मन क्यों तुम्हें चाहे,मेरा मन