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जब भी गुजरे वक्त की दहलीज़ से गुजरती हूँ वही चौखट

जब भी गुजरे वक्त
की दहलीज़ से गुजरती हूँ
वही चौखट पर खड़ी
एहसासों से निखरती हूँ
याद आता है तेरा
हाथों से हाथ पकड़ना
सारी खुशियों को दामन में भरना
छू जाती थी साँसे
साँसो से ...... फिर उस
आलम का हाल न पूछो
था कहा नहीं कुछ तूने
पर जाने क्या सुना था मैनें....
जब थामा था मैनें तेरा 
हाथ अपने हाथों में
तुम कहते रहे जाने क्या
मैं न चाहते हुए सुनती रही
रुकना तो चाहती नहीं थी
फिर भी न जाने क्यों कदम न बढ़ा सकी
मैं वही रूकी रही
फिर उसी गुज़रे वक्त की दहलीज़ पर.......

©Kalpana_Shukla_up_74
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