मौसम आया ,और आई वो भी... गलियों में शर्माती हुई।। रुतबा... तौर तरीकों में कैद वो,फिर भी आजाद थी सैलाब उठा था जो धड़कनों के बढ़ने से.... उमड़ने लगीं इस बार भी दिल में मेहकशों से तांकता इस बार भी में.. नज़र मेरी तील पे ही थम जाती अनजान गलिओं में किसी जाफिए की तलाश में नज़रें दौड़ाना लाजमी तो नहीं..... इन आँखों को रोकने मुनासिफ था शायद...पर जरूरी तो नहीं... अब पल्खें.... गिरने की नियति से उभरने लगे हैं नया इश्क़ है, शोर नहीं करना है..... पतली गालियां हैं....संभलके चलना है 🥴 To the upcoming spring