न तो बस्ती समझती है न शहर समझते है परिंदे ही भले हैं सारी दुनिया घर समझते है एक आदत हमारी है बस पत्थर परस्ती की तो उनको है वहम की नूर वो ही भर समझते है यहाँ सब लोग हीरे की चमक पे जान देते हैं काला कोयला क्यों लोग मुट्ठी भर समझते है किसी एक बात को सब आसमानी मान लेते है किसी बहरुपिये को क्यों ये जादूगर समझते है ये युगधर्म है मिट्टी को आखिर मिट्टी होना है दीये टूटे हुए इस बात को बेहतर समझते है न तो बस्ती समझती है न शहर समझते है परिंदे ही भले हैं सारी दुनिया घर समझते है एक आदत हमारी है बस पत्थर परस्ती की तो उनको है वहम की नूर वो ही भर समझते है यहाँ सब लोग हीरे की चमक पे जान देते हैं काला कोयला क्यों लोग मुट्ठी भर समझते है