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हर बार मान जाती हूँ, बिना किसी मनुहार के। सीधी सी

हर बार मान जाती हूँ, बिना किसी मनुहार के।
सीधी सी बीवी हूँ, लाती न मौसम तकरार के।

साहिब हमारे बड़े रौबीले, बड़ा रौब वो झाड़ते,
ले चाय की चुस्कियाँ, पलटते पन्ने अखबार के।

घर के हर एक सदस्य का, रखती हूँ मैं ख्याल,
तभी तो गूँजते हैं,घर संसार में मेरे नग्में प्यार के।

सास मेरी सीधी - सादी रोज बलैयां मेरी लेती,
आशीष हरपल देती मुझे,बिना तीज त्योहार के।

सब काम करके लिखने बैठती मैं 'गीत' ग़ज़ल,
दिन अधूरा लगता,बिन साहित्य सागर परिवार के।

©Sneha Agarwal 'Geet'
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