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.चलो दर्द छुपा लेती हूँ फिर मुस्कुरा लेती हूँ एह

.चलो दर्द छुपा लेती हूँ 
फिर मुस्कुरा लेती हूँ 
एहसास है मुझको
झरने की बौछारों का 
समन्दर की पीर का
नदियों के नीर का
उसके कल-कल बहने का
पल - पल मरने का 
चलो अश्रु को बहा लेती हूँ 
कुऍं के जल को नमकीन बना देती हूँ
फिर मुस्कुरा लेती हूँ 
अपना दर्द छुपा लेती हूँ ..

सघन मेघ को
सोचा था थोड़ा रुला देती हूँ
मिट्टी की
महक को अपना लेती हूँ 
बारिश की 
बूँदों को पलकों पर सजा लेती हूँ 
फिर मुस्कुरा लेती हूँ 
अपना दर्द छुपा लेती हूँ .

दूरी का एहसास न हों
गले से लगा लेती हूँ 
हवाओं को बाहों में समा लेती हूँ 
साँसों में बसा लेती हूँ 
धड़कनों में प्रकृति को बसा लेती हूँ 
टूट कर न बिखर जाए
शायर रूठा है अपनी ग़ज़ल से
उसको मना लेती हूँ 
शहर की उदासी को
स्नेह नेत्रों में छिपा लेती हूँ 
फिर मुस्कुरा लेती हूँ 
अपना दर्द छुपा लेती हूँ ..

शाखों को स्नेह है मुझसे 
टूटे पत्तों को हथेली पर सुला देती हूँ
बेसब्र है चाँदनी 
उसकी शीतलता में नहा लेती हूँ 
तेज सूरज का 
मस्तक पर उठा लेती हूँ 
जहर जो है चन्दन के पेड़ों से लिपटा
उसको अपने कंठ में उतार लेती हूँ 
फिर मुस्कुरा लेती हूँ 
अपना दर्द छुपा लेती हूँ ...

©डॉ. अनुभूति
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