कितना खोया, कितना पाया, चलो हिसाब लगा लें। अपनी पूँजी देखें, आओ, अन्तर में मुख डालें।। मेरा पड़ोसी व्यापारी हर वर्ष अपने कार वार का हिसाब बनाता है। चिट्ठा बाँधता है। बड़ी तीक्ष्ण दृष्टि से हर आंकड़े को देखता है कि किसमें कितना लाभ हुआ और कितनी हानि। जिस मद में लाभ हुआ है उस मद में और बारीकी के साथ देखता है कि आगामी वर्ष और अधिक लाभ किस प्रकार उठा सकता हूँ। जिस व्यापार में हानि हुई है उसे बन्द करने या हानि के कारण की ढ़ूँढ़ कर बन्द कर देने का हिसाब बनाता है। पूँजी को तो बड़े ही उत्साह, लालसा और एकाग्रता पूर्वक देखता है। बैंक में इतना हुन्डी पर्चों में इतना, सूद पर इतना, गोदाम के माल में इतना, तिजोरी में इतना, कुल मिलाकर इतना हुआ। गत वर्ष की अपेक्षा कुछ बढ़ गया है तो वह प्रसन्न होता है। घट गया है तो चिन्तातुर होता है। रात रात भर जाग कर नफा नुकसान पर विचार करता है। पूँजी को सुरक्षित रखने की सबसे अधिक चिन्ता है। मेरा पैसा कहीं डूब न जाय, इस मामले में वह बहुत सतर्क है। उसका व्यापार खूब चलता है, वह खूब प्रसन्न रहता है। आओ अन्तर में मुँह डालें!