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मेरे जीवन जीने का स्त्रोत... शेष अनुशीर्षक में पड़

मेरे जीवन जीने का स्त्रोत...
शेष अनुशीर्षक में पड़िए


हां स्पष्ट कर दूं 
इसमें कुछ निज प्रशंसा नहीं
एक वास्तविकता है
ये शायद मुझे भी नहीं पता था
कि मैं ऐसा क्यूं करता हूं.... वर्ष 1998 दिसंबर,
पत्नी की कैंसर के कारण फूड पाइप की सर्जरी हुई थी, PGI Chandigarh से, भयानक दौर से गुज़र कर थोड़ा बहुत स्वस्थ लाभ करने का संघर्ष कर रही थी, उन दिनों आसपास ढेर सारे लोगों के होने के बावजूद भी मैं अक्सर इतना अकेला होता कि खुद से बातें करता रहता, इन्हीं दिनों एक किताब लिखी *आस्था की पगडंडियों*
जब इसका preface लिखने को मुझे किसी से आग्रह करना था, तो प्रोफेसर  दिलगीर उन दिनों पंजाब यूनिवर्सिटी के HOD थे, उनकी तरफ से ये प्रस्ताव आया कि वो इसका preface लिखना चाहते हैं।
उनके प्रीफेस ने एक रहस्य उजागर किया, जिसका विवरण मैं देना चाहता हूं
उन्होंने लिखा है,
गुरुनानक देव जी से एक बार किसी ने पूछा की आप सारा सारा दिनभगवान का नाम लेते रहते हो, कई कई दिनों तक आप थकते नहीं...
गुरु जी ने उत्तर दिया *Aakhan जीवा विसरे मर जाऊं* अर्थात मैं उसका नाम लेता रहता हूं तो जिंदा हूं, भूल जाऊंगा तो मर जाऊंगा*
कुछ ऐसी ही अवस्था इस कुलभूषण की भी है, ये जो सबके मन।से पीड़ा चुराने के यतन करता है, अपने खून से किसी को ज़िंदगी देने की कोशिश करता है
मेरे जीवन जीने का स्त्रोत...
शेष अनुशीर्षक में पड़िए


हां स्पष्ट कर दूं 
इसमें कुछ निज प्रशंसा नहीं
एक वास्तविकता है
ये शायद मुझे भी नहीं पता था
कि मैं ऐसा क्यूं करता हूं.... वर्ष 1998 दिसंबर,
पत्नी की कैंसर के कारण फूड पाइप की सर्जरी हुई थी, PGI Chandigarh से, भयानक दौर से गुज़र कर थोड़ा बहुत स्वस्थ लाभ करने का संघर्ष कर रही थी, उन दिनों आसपास ढेर सारे लोगों के होने के बावजूद भी मैं अक्सर इतना अकेला होता कि खुद से बातें करता रहता, इन्हीं दिनों एक किताब लिखी *आस्था की पगडंडियों*
जब इसका preface लिखने को मुझे किसी से आग्रह करना था, तो प्रोफेसर  दिलगीर उन दिनों पंजाब यूनिवर्सिटी के HOD थे, उनकी तरफ से ये प्रस्ताव आया कि वो इसका preface लिखना चाहते हैं।
उनके प्रीफेस ने एक रहस्य उजागर किया, जिसका विवरण मैं देना चाहता हूं
उन्होंने लिखा है,
गुरुनानक देव जी से एक बार किसी ने पूछा की आप सारा सारा दिनभगवान का नाम लेते रहते हो, कई कई दिनों तक आप थकते नहीं...
गुरु जी ने उत्तर दिया *Aakhan जीवा विसरे मर जाऊं* अर्थात मैं उसका नाम लेता रहता हूं तो जिंदा हूं, भूल जाऊंगा तो मर जाऊंगा*
कुछ ऐसी ही अवस्था इस कुलभूषण की भी है, ये जो सबके मन।से पीड़ा चुराने के यतन करता है, अपने खून से किसी को ज़िंदगी देने की कोशिश करता है