घर हमारे वो आया कई मर्तबा। हँस के सीने लगाया कई मर्तबा। हमसे नाराज़ होने से पहले तलक, हमको अपना बताया कई मर्तबा। बाद उसने, हमें अपना समझा नहीं। बात करना भी चाहा कई मर्तबा। हम खुदा मानकर जिसके सजदे किए, झूठ पर झूठ बोला कई मर्तबा। जख्म ही बस मिला मरहमों की जगह, उसने उसको खुरेदा कई मर्तबा। बात गैरों की आखिर करें भी तो क्या, साथ अपनो ने छोड़ा कई मर्तबा। जिस्म क्या जान तक सौंप जिसको दिया, साथ गैरों के पाया कई मर्तबा। जिनसे उम्मीद हमको ज़रा भी न थी, उसने हमको बचाया कई मर्तबा। #मौर्यवंशी_मनीष_मन #ग़ज़ल_मन #मनीष_मन #gazal #gulzar #मर्तबा