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अस्तित्व इस जीवन का धरा पर ही तो सम्भव है। प्रकृति

अस्तित्व इस जीवन का धरा पर ही तो सम्भव है।
प्रकृति का हर दृश्य मनोहर लगता बड़ा विहंगम हैं।

ईश्वर की अदभुत रचना यह है संभावनाओं का संसार,
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर करो इसका संरक्षण हर बार। ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि में कितनी ही आकाशगंगाएँ है जिसमें न जाने कितने अनगिनत तारे, कितने ही ब्रम्हांड और कितने ही ग्रह उपस्थित है। ऐसी ही एक आकाशगंगा जिसे हम ‘मिल्की वे’ कहते है और जहाँ हमारा ये सौरमंडल और इसके ग्रह पाए जाते है, भी इसी ब्रह्मांड का अंग हैं। इस प्रकार जिस ग्रह पर हम सभी जीवनधारी रहते हैं, वो पृथ्वी भी इसी आकाशगंगा का अभिन्न अंग हैं।

आज से करोड़ों वर्ष पूर्व जब इस धरती पर जीवन संभव नहीं था तब यह मात्र एक सूर्य से अलग जलता हुआ पिंड था। फिर जैसे-जैसे समय व्यतीत हुआ, वैसे-वैसे आग का यह गोला धीरे-धीरे एक ठोस सतह वाले ग्रह ‘पृथ्वी’ में बदल गया। वैज्ञानिकों के अनुसार जब पृथ्वी की सतह ठंडी होती जा रही थी तब पृथ्वी पर कितने ही वर्ष तक बारिश होती रही। जब बारिश रुकी तो पृथ्वी पर जीवन का विकास आरंभ हुआ। 

पृथ्वी पर प्राकृतिक सुंदरता का विस्तार मात्र थल पर ही नहीं बल्कि जल एवं नभ पर भी दिखाई देता है। थल पर वृक्ष, स्तनधारी, सरीसृप, तो नभ में उड़ने वाले कीट एवं बड़े-छोटे पक्षियों का संसार तो जल में मछली, कछुए जैसे कितने ही जलचर इस ग्रह की शोभा बढ़ाने लगे। मानव ने अपने बुद्धि कौशल द्वारा पृथ्वी पर निरंतर अपना जीवन सुगम बना लिया।

अगर यह कहा जाए कि पृथ्वी ईश्वर द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पृथ्वी ग्रह का सत्तर प्रतिशत भाग पानी से ढका हुआ है जिसमें से कुछ ही पीने योग्य पानी है, शेष खारा पानी है। यहाँ मानव जाति के विकास के साथ सभ्यताओं का भी विकास हुआ जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आरंभ हो गया। नदियों के किनारे उपजाऊ भूमि होने के कारण अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदी के किनारे हुआ। धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि हुई तो वन क्षेत्र का दोहन शुरू हो गया। इस क्षेत्र के अनावश्यक दोहन के कारण ही आज पृथ्वी पर प्राकृतिक संतुलन बिगड़ना शुरू हो गया। भूमिकृत जल का अनावश्यक रूप से दोहन करने की वजह से आज पृथ्वी पर पीने वाले पानी की बहुत कमी हो गई।  बात चाहे खनिज पदार्थों के दोहन की हो या फिर पेड़ो को बेवजह काटने की, इसका सबसे ज्यादा असर पृथ्वी पर हुआ है। धरती को सूर्य की हानिकारक किरणों के प्रभाव से बचाने वाली सुरक्षा परत जिसे ओजोन परत कहते हैं, उसमें एक छेद हो चुका हैं जिस वजह से आज धरती का तापमान दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। बढ़ते हुए तपमान और घटते हुए वन क्षेत्र के कारण पशु पक्षियों की अनगिनत प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं और कितनी ही विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई हैं। नदियों में कितने ही प्रकार के विषैले तत्वों को बहाया गया है जिस कारण पृथ्वी पर जलीय जीवों पर भी एक गहरा संकट आ गया है।
अस्तित्व इस जीवन का धरा पर ही तो सम्भव है।
प्रकृति का हर दृश्य मनोहर लगता बड़ा विहंगम हैं।

ईश्वर की अदभुत रचना यह है संभावनाओं का संसार,
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर करो इसका संरक्षण हर बार। ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि में कितनी ही आकाशगंगाएँ है जिसमें न जाने कितने अनगिनत तारे, कितने ही ब्रम्हांड और कितने ही ग्रह उपस्थित है। ऐसी ही एक आकाशगंगा जिसे हम ‘मिल्की वे’ कहते है और जहाँ हमारा ये सौरमंडल और इसके ग्रह पाए जाते है, भी इसी ब्रह्मांड का अंग हैं। इस प्रकार जिस ग्रह पर हम सभी जीवनधारी रहते हैं, वो पृथ्वी भी इसी आकाशगंगा का अभिन्न अंग हैं।

आज से करोड़ों वर्ष पूर्व जब इस धरती पर जीवन संभव नहीं था तब यह मात्र एक सूर्य से अलग जलता हुआ पिंड था। फिर जैसे-जैसे समय व्यतीत हुआ, वैसे-वैसे आग का यह गोला धीरे-धीरे एक ठोस सतह वाले ग्रह ‘पृथ्वी’ में बदल गया। वैज्ञानिकों के अनुसार जब पृथ्वी की सतह ठंडी होती जा रही थी तब पृथ्वी पर कितने ही वर्ष तक बारिश होती रही। जब बारिश रुकी तो पृथ्वी पर जीवन का विकास आरंभ हुआ। 

पृथ्वी पर प्राकृतिक सुंदरता का विस्तार मात्र थल पर ही नहीं बल्कि जल एवं नभ पर भी दिखाई देता है। थल पर वृक्ष, स्तनधारी, सरीसृप, तो नभ में उड़ने वाले कीट एवं बड़े-छोटे पक्षियों का संसार तो जल में मछली, कछुए जैसे कितने ही जलचर इस ग्रह की शोभा बढ़ाने लगे। मानव ने अपने बुद्धि कौशल द्वारा पृथ्वी पर निरंतर अपना जीवन सुगम बना लिया।

अगर यह कहा जाए कि पृथ्वी ईश्वर द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पृथ्वी ग्रह का सत्तर प्रतिशत भाग पानी से ढका हुआ है जिसमें से कुछ ही पीने योग्य पानी है, शेष खारा पानी है। यहाँ मानव जाति के विकास के साथ सभ्यताओं का भी विकास हुआ जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आरंभ हो गया। नदियों के किनारे उपजाऊ भूमि होने के कारण अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदी के किनारे हुआ। धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि हुई तो वन क्षेत्र का दोहन शुरू हो गया। इस क्षेत्र के अनावश्यक दोहन के कारण ही आज पृथ्वी पर प्राकृतिक संतुलन बिगड़ना शुरू हो गया। भूमिकृत जल का अनावश्यक रूप से दोहन करने की वजह से आज पृथ्वी पर पीने वाले पानी की बहुत कमी हो गई।  बात चाहे खनिज पदार्थों के दोहन की हो या फिर पेड़ो को बेवजह काटने की, इसका सबसे ज्यादा असर पृथ्वी पर हुआ है। धरती को सूर्य की हानिकारक किरणों के प्रभाव से बचाने वाली सुरक्षा परत जिसे ओजोन परत कहते हैं, उसमें एक छेद हो चुका हैं जिस वजह से आज धरती का तापमान दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। बढ़ते हुए तपमान और घटते हुए वन क्षेत्र के कारण पशु पक्षियों की अनगिनत प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं और कितनी ही विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई हैं। नदियों में कितने ही प्रकार के विषैले तत्वों को बहाया गया है जिस कारण पृथ्वी पर जलीय जीवों पर भी एक गहरा संकट आ गया है।
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