कि आज फिर लिखती हूँ ..... इस उम्मीद के साथ कि खुद को किए वादो को निभा पाऊँ ना ही कोई प्रण है नये साल का और ना ही धूँधले से सपने जिन्हे मैं छू ना सकू बस एक तम्मना है कि इन पुरानी यादो की हमसफर बन मैं इस नये सफर में बदल न जाऊं। वक्त की ओढ में खुद को और बहतर बना पाऊं शायद , ये रोशनी इस सफर में उजाला न ला पाए शायद , उन ख्वाहिशों तले मैं काफी आगे निकल जाऊं आगे क्या होगा, कैसे होगा इतना सोचने का वक्त कहाँ बस एक तम्मना ,कि इन पुरानी यादों की हमसफर बन मैं इस नये सफर में न बदल जाऊँ। वक्त की ओढ में खुद को और बहतर बना पाऊं ki badal na jau......