धुंध से निकलकर है धुआं हो जाना आंखे मूंद कर आना और मूंदे ही चले जाना मृत्यु तो अटल सत्य है इसे है सब किसी ने माना फिर भी नहीं बदला जमाना सबकी हैसियत बदली है नियत नहीं सपनों के शहर में बहुत दूर निकल गए हैं पर हकीकत तो है वहीं की वहीं कहीं भूख से मरते हैं कहीं ठंड से तन को ढकने की नाकाम कोशिश कैसे करें जिनका पेट भी भरता नहीं किसको स्वर्ग मिला किसको नरक आज तक किसी ने नहीं जाना फिर भी नहीं बदला जमाना कविता पार्ट -1 ©Prashant yadav #DIL#KE#ALFAZ#JINDAGI#PHOOTPATH#KI #alone