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आज दो सीमाओं के मध्य कही वर्षो के बाद अनायास ही बा

आज दो सीमाओं के मध्य कही वर्षो के बाद अनायास ही बातचीत हो गयी होगी . 
दो देशों की दहकती शत्रुता की आग ने कभी उन्हें  आलिंगन का सौभाग्य नहीं दिया... 
"वो सिपाही जो अपने मुख पर सूर्य सा तेज रखता है, आज अपने ही नेत्रों को संतुलित नहीं रख पा रहा होगा  एक आंख अपने शत्रु पर और एक आँख वहां से कोसो दूर अपने घर पर.... 
सीमाएं आज संताप नहीं कर रही होंगी की की आज उस सिपाही का तनाब उसकी वजह से है .... 

प्रदर्शनकरियों की टोलिया आज मेरे घर के सामने से होकर नहीं गुजरी, 
आज डंडो से गड़गड़ाहट से आसमान नहीं गुंजा
, आज रक्त के दब्बो ने मेरे घर की दीवार, खिड़कीयों पर नफरत के समानार्थी नहीं लिखें... 
 अकृत्रिम प्रेम से लबरेज वो धरा जिसपर शोभित धरनाकारी कभी भूखे रहे, कभी मृत्यु को प्राप्त हो गए, आज व्याकुल नहीं होगी, आज हिंसा नहीं देखेगी, आज खुद को दोषी नहीं मानेगी... 

आज हवा भी मदमस्त हर और घूम रही होगी... 
आज हवा भी साँस ले पा रही होगी,... 
वाहनों के शोर को संगीत देते देते थक गयी थी, आज वो उस चिड़िया की चहचाहट और उस ओस की बूँद के कम्पन को संगीत दे रही होगी.... 
वाहनों और इस अक्खड़ मनुष्य के रोष ने उस धरा के ह्रदय को जख्मी कर डाला, उसकी आंखें नौच डाली.. 
पर आज वो धरा उस आकाशगंगा को देखकर मुस्कुराएगी... 
आज ये प्रगति अपने ही बिछड़े परिवार से सँग बैठकर भोजन करेगी... 
आज प्रगति को इंसान से खतरा नहीं... 
आज इंसान को उसके दुश्मन से खतरा नहीं.. 
आज इंसान को खतरा है तो उसके अपनों से,  प्रगति से,और अपनी ही संरचना से 

नेहा वशिष्ठ karma repeats itself
आज दो सीमाओं के मध्य कही वर्षो के बाद अनायास ही बातचीत हो गयी होगी . 
दो देशों की दहकती शत्रुता की आग ने कभी उन्हें  आलिंगन का सौभाग्य नहीं दिया... 
"वो सिपाही जो अपने मुख पर सूर्य सा तेज रखता है, आज अपने ही नेत्रों को संतुलित नहीं रख पा रहा होगा  एक आंख अपने शत्रु पर और एक आँख वहां से कोसो दूर अपने घर पर.... 
सीमाएं आज संताप नहीं कर रही होंगी की की आज उस सिपाही का तनाब उसकी वजह से है .... 

प्रदर्शनकरियों की टोलिया आज मेरे घर के सामने से होकर नहीं गुजरी, 
आज डंडो से गड़गड़ाहट से आसमान नहीं गुंजा
, आज रक्त के दब्बो ने मेरे घर की दीवार, खिड़कीयों पर नफरत के समानार्थी नहीं लिखें... 
 अकृत्रिम प्रेम से लबरेज वो धरा जिसपर शोभित धरनाकारी कभी भूखे रहे, कभी मृत्यु को प्राप्त हो गए, आज व्याकुल नहीं होगी, आज हिंसा नहीं देखेगी, आज खुद को दोषी नहीं मानेगी... 

आज हवा भी मदमस्त हर और घूम रही होगी... 
आज हवा भी साँस ले पा रही होगी,... 
वाहनों के शोर को संगीत देते देते थक गयी थी, आज वो उस चिड़िया की चहचाहट और उस ओस की बूँद के कम्पन को संगीत दे रही होगी.... 
वाहनों और इस अक्खड़ मनुष्य के रोष ने उस धरा के ह्रदय को जख्मी कर डाला, उसकी आंखें नौच डाली.. 
पर आज वो धरा उस आकाशगंगा को देखकर मुस्कुराएगी... 
आज ये प्रगति अपने ही बिछड़े परिवार से सँग बैठकर भोजन करेगी... 
आज प्रगति को इंसान से खतरा नहीं... 
आज इंसान को उसके दुश्मन से खतरा नहीं.. 
आज इंसान को खतरा है तो उसके अपनों से,  प्रगति से,और अपनी ही संरचना से 

नेहा वशिष्ठ karma repeats itself