"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" अपना काम करो, फल की चिंता मत करो! यह बात अपने आसपास के लोगों से आपने बहुत बार सुनी होगी, है न? उनसे यदि पूछें कि ऐसा किसने कहा है 🤔, तो उनका जवाब होगा, "अरे! गीता में श्रीकृष्ण ने बताया है", अद्भुत बात यह है कि गीता पढ़े बिना हम सबको पता है कि गीता में श्रीकृष्ण ने क्या-क्या कहा है! देखते हैं कि यह बात कहाँ से आ रही है, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। तो लोगों ने इस श्लोक का अर्थ लगाया कि फल की परवाह करे बिना बस कर्म करते चलो। पर कौन-सा कर्म करें? इस बात को हम बिल्कुल दबा गए जबकि श्रीकृष्ण के उपदेश में यही बात (सही कर्म का चयन) सर्वोपरि है। नतीजा: हम ज़्यादातर गलत काम चुनते हैं, और फिर कहते हैं, "बस अपना काम करे चलो डूबकर, और फल की चिंता मत करो"। ये बात गलत और नुकसानदेह है। सबसे पहले आता है सही कर्म का चयन। सही कर्म कौन सा है? सही कर्म वो है जो अपनी व्यक्तिगत कामना की पूर्ति के लिए न किया जाए, बल्कि कृष्ण (सत्य) के लिए किया जाए। यही निष्कामता है। पर अपनी कामना को पीछे छोड़ना हमें स्वीकार नहीं होता, तो काम तो हम करते हैं कामनापूर्ति के लिए, और फिर ऐसे काम में जब तनाव और दुख मिलता है, तो खुद को बहलाने के लिए कह देते हैं, "कर्म करो, फल की चिंता छोड़ो"। खेद ये कि गीता के सबसे मूलभूत सूत्र का ही सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया है। आम जनता तो भ्रमित रही ही है, तथाकथित गुरुओं ने भी अक्सर सूत्रों की अनुचित विवेचना की है। नतीजा ये है कि आज कुछ लोग गीता का असत अर्थ करते हैं, और बाकी लोगों की गीता में रुचि नहीं। गीता कोई सुनी-सुनाई कहावत नहीं है, गीता जीवन-विज्ञान है, गीता हमारी कल्पना से आगे की बात है। ©S Talks with Shubham Kumar "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" #sharadpurnima