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निमास की वो एक शाम हाल-फिलहाल में ना बात हुई, हुए

निमास की वो एक शाम

हाल-फिलहाल में ना बात हुई, हुए थे अरसे उसका ज़िक्र होके
गुज़रे थे कभी एक अंजान कस्बे से, जब हम कुछ बेफ़िक्र होके
घुप्प अँधेरे में चमचमाते दिख रहे थे झूले, लिए हज़ारों बल्ब की लटें
निमास लगी थी वहाँ, जो खींच लायी उस कच्चे इश्क़ की सलवटें
वक़्त से हटी धूल तो वो मिला, जो दिल था कहीं पीछे भूल आया
ज़ुल्फ़ें गिराके एक तरफ़ वो चेहरा, फिर इन रातों को करने वसूल आया
शुरु हुई थी कहानी ऐसी ही एक शाम, जब हाथ से फिसली कुल्फ़ी ज़मीन में जा धंसी थी
पास खड़े अपने नाना के साथ, वो इस हादसे पे बड़ी बेदर्द होके हंसी थी
कमज़ोर दिल न थे, पर चौंका गया बगल की दुकान पे छर्रे वाली बंदूक का धमाका
और उसपे बड़ी बेइज़्ज़ती से चुभा, भरे बाज़ार गूँजता वो उसका ठहाका
चेहरे पे नज़र पड़ी तो, कुल्फ़ी से भी ठंडी जिस्म में एक सिहरन दौड़ी थी
मोहल्ले की अपनी मेघा थी वो, जिसकी एक झलक को कभी कई शामें निचोड़ी थीं
नाना से कहके एक और कुल्फ़ी ख़रीदे, उसके कदम पास आके जब कुछ रुके
2 रुपये की कुल्फ़ी वाली, ये बेशक़ीमती हरक़त देख हम तो थे कबके बिक चुके
फिर क्या, बाकी शाम रही साथ गुब्बारों का पीछा करते, गुड़िया के बाल खाते
कभी वो डरे जो किसी झूले की ऊँचाई से, तो आगे बढ़ बहादुरी की शेख़ी बघारते
जज़्बातों को टटोला भी ना था, ना की तैयारी कैसे शुरू करेंगे पढ़ना इश्क़ की क़िताब
ख़्वाबों में भी ना सोचा जो, अकेले निमास घूमने का वो फ़ैसला हुआ इतना क़ामयाब। बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में अपने नाना के यहाँ जाते थे। वहाँ साल में दो बार नुमाइश लगती थी, जिसे हमारे नाना निमास बोलते थे। निमास में जाना अपने आप में एक त्यौहार था और वहीं से जुड़ी हैं कच्चे इश्क़ की यादें। ऐसी ही एक शाम की दिली कहानी है - "निमास की वो एक शाम"

#yqdidi #yqlove #yqchildhood #yqlife #yqstory #yqshayari
निमास की वो एक शाम

हाल-फिलहाल में ना बात हुई, हुए थे अरसे उसका ज़िक्र होके
गुज़रे थे कभी एक अंजान कस्बे से, जब हम कुछ बेफ़िक्र होके
घुप्प अँधेरे में चमचमाते दिख रहे थे झूले, लिए हज़ारों बल्ब की लटें
निमास लगी थी वहाँ, जो खींच लायी उस कच्चे इश्क़ की सलवटें
वक़्त से हटी धूल तो वो मिला, जो दिल था कहीं पीछे भूल आया
ज़ुल्फ़ें गिराके एक तरफ़ वो चेहरा, फिर इन रातों को करने वसूल आया
शुरु हुई थी कहानी ऐसी ही एक शाम, जब हाथ से फिसली कुल्फ़ी ज़मीन में जा धंसी थी
पास खड़े अपने नाना के साथ, वो इस हादसे पे बड़ी बेदर्द होके हंसी थी
कमज़ोर दिल न थे, पर चौंका गया बगल की दुकान पे छर्रे वाली बंदूक का धमाका
और उसपे बड़ी बेइज़्ज़ती से चुभा, भरे बाज़ार गूँजता वो उसका ठहाका
चेहरे पे नज़र पड़ी तो, कुल्फ़ी से भी ठंडी जिस्म में एक सिहरन दौड़ी थी
मोहल्ले की अपनी मेघा थी वो, जिसकी एक झलक को कभी कई शामें निचोड़ी थीं
नाना से कहके एक और कुल्फ़ी ख़रीदे, उसके कदम पास आके जब कुछ रुके
2 रुपये की कुल्फ़ी वाली, ये बेशक़ीमती हरक़त देख हम तो थे कबके बिक चुके
फिर क्या, बाकी शाम रही साथ गुब्बारों का पीछा करते, गुड़िया के बाल खाते
कभी वो डरे जो किसी झूले की ऊँचाई से, तो आगे बढ़ बहादुरी की शेख़ी बघारते
जज़्बातों को टटोला भी ना था, ना की तैयारी कैसे शुरू करेंगे पढ़ना इश्क़ की क़िताब
ख़्वाबों में भी ना सोचा जो, अकेले निमास घूमने का वो फ़ैसला हुआ इतना क़ामयाब। बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में अपने नाना के यहाँ जाते थे। वहाँ साल में दो बार नुमाइश लगती थी, जिसे हमारे नाना निमास बोलते थे। निमास में जाना अपने आप में एक त्यौहार था और वहीं से जुड़ी हैं कच्चे इश्क़ की यादें। ऐसी ही एक शाम की दिली कहानी है - "निमास की वो एक शाम"

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