दो धार आँखे वो रौबदार आँखे जो रखी गई थी बड़े सलीके से ऐसे की न कुछ कटा है न कुछ बचा है बस बेबस है अपंग पंखों के साथ झूल रहा है झूला स्थूल पड़े मन मे एक बार फ़िर से हलचल हैं कंपन है और शरीर की धाराएँ कल - कल हैं वो सादी तुम्हारी कमीज की चमक से झिलमिला जाते हैं मेरे नजरों मे सितारे एक अंधकार मे लालिमा की सुबह हैं मुस्कान से खिलते होठ तुम्हारे कैसे कविता मे कैसे गज़ल मे ढालू मैं अन्धकार एक तेज़ को कैसे समा लू ------------सलोनी कुमारी ©khubsurat #khubsuratsaloni #love #reading