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हमरी प्रेम कहानी भाग 6 ******************* जन्माष्

हमरी प्रेम कहानी भाग 6
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जन्माष्टमी का मेला हमरे गांव का सालों से मशहूर था। बहुत सारा प्रतिमा और घमसान मेला लगता था। 3 दिन के इस आयोजन में हर दिन लोगों के मनोरंजन के लिए अलग अलग प्रोग्राम रखा जाता था। भजन-कीर्तन, लाउडस्पीकर का   शोर,मौत का कुआं,कठ झूला,मिठाई की तरह-तरह की दुकान,श्रृंगार की दुकान,जादूगरी का खेल, तिलिस्म का खेल,कुश्ती का आयोजन होता था। लोगों का हुजूम  दूसरे गांव से इस मेले को देखे पहुंचते थे। क्या कहे अद्वितीय नजारा होता थाI 
ई मेला में अलग-अलग वय के लोग अपने अपने झुंड में मेले का लुत्फ उठाने पहुचते थे। लोग अपन-अपन हिसाब से खरीददारी करते थे। किसी श्रृंगार की दुकान पे किसी महिला का नोक-झोंक चल रहा होता था त कंही कम पैसा ग्राहक के लौटाने के एवज में दुकानदार की शिकायत मेला कमिटी से हो रही होती थी। बीच-बीच मे लाउडस्पीकर पे किसी का बच्चा के खो जाने और उसे मंच पर आके ले जाने की घोषणा हो रही होती थी। चिल्ल-पों ई कदर मचा होता था कि पास खड़ा आदमी का बोल रहा है उहो न सुनई देता था। 
मेले का एगो और खासियत था। इ मेले के बहाने केतना आशिक अपने प्रेयसी को देख,आर मिल पाते थे। नशेड़ियों को लगभग नशे की छूट मिल जाती थी। गिरहकट अपनी विद्या आजमा लेते थे। ठग अपने इरादे बुलंद कर लेते थे। और त और कई नई प्रेमकथा की नींव भी इस मेले के दौरान जम जाती थी।
तरह-तरह के फ्रॉक,सलवार-शूट, साड़ी में कृत्रिम श्रृंगार से लदी लड़की-स्त्रियां। नये-नये शर्ट-पेंट में नौजवान, नयी धोती-कुर्ता और गमछे में बुजुर्ग। पैसा-रुतवा-सुंदरता और सजावट का अजीब संगम होता था।
मेले के अद्भुत आनंद को हर कोई अपने जेहन में कैद कर लेना चाहता था। किसे परवाह की बारिश के कारण कंही कीचड़ है,पसीने की बू आ रही या इत्र मेहक रहा है। बस इस तीन दिन को जी लेना था।
इस बार के मेले में " प्रेम-पथिक" एक नाटक का आयोजन किया गया था। हमको इसमें प्रेमी का रोल मिला। सुख-दुख,मिलन-बिछड़न और अंत मे प्रेम करने की सजा बड़ा उम्दा किरदार था। एगो मुसलमान लड़की से हिन्दू लड़का का प्रेम होना फिर समाज मे पंचायत होना,धर्म परिवर्तन का जोर और अंत मे धोखा और सजा दिया जाना। भोलन चाचा हमको हमरा स्क्रीप्ट पकड़ा के बोले"बेटा तुमका ई रोल अमर बना देगा गांव में"। हमको ऐसा लगा कि हमर फ्यूचर बता रहे। स्क्रीप्ट को खूब रट्टा मारे।रोज शाम को रेहलसल करते।कउनो कमी होती त पुरजोर मेहनत कर उसको सुधारते।पर तबहियो दिल धधकते रहता था।कैसे मंच पे एतना भीड़ के सामने इसको निभाएंगे? कुछ गड़बड़ हुआ त सब किस्सा और मजाक उड़ाएगा। पर अपन प्रेम कहानी समझ मजबूत इरादे से भिड़ गए नाटक के तैयारी में।
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रिहलसल का 10वां दिन था। भोलन चाचा बिदके हुए थे..... अबे तुमरा में सुधार होगा कि नहीं..... ई बार-बार नौरोज की जगह सरोज काहे बोल जाते हो बे....नही संभल रहा त बोलो अभियो टाइम है....किसी दूसरे को दे दें ई रोल.....मजाक बना दिये हो।
हम बोले नहीं चच्चा उ मुसलमान नाम है ना त जीभ फिसल जाता है। बांकी त एकदम सहिये कर रहे।इसको भी सुधार लेंगे।
भोलन चाचा बोले मात्र 4 दिन बचा है मंच पे उतरने को यही चलता रहा त ठीक नहीं होगा।करो फिर से रियाज....
हम डायलॉग बोले" देखो नौरोज,सांस चली जाएगी, ये दुनियाँ नष्ट हो जाएगी पर मेरी सांसे तुम्हारे लिए होगी।ये दिल तुम्हारे लिए धड़केगा। मैं रूह में तब्दील होकर भी बस तुम्हे ही चाहूंगा......अब तो मेरा भड़ोसा करो....चलो मेरे साथ इस दुनियां से दूर....इस शहर से दूर....ये समाज मेरा तुम्हारा नहीं है.....ये धड़कनों को नही सुन सकते.....जिंदा लाश हैं ये सब......बस जात-धर्म और नफरत में जीने वाले ये जिंदा लाश है....अगर हमें साथ जीना है तो इन सबसे दूर जाना होगा.....देखो,मत सोचो.... कौन अपना है....कौन पराया....मैं हूँ ना तुम्हारे साथ..... आओ मेरा हाथ थाम लो....बस चल चलो.....इससे पहले की देर हो जाए। इतना बोलके हम सचमुच घुटने के बल बैठ के रो दिए....सचमुच का आंसू बहने लगा।
चच्चा ताली बजाकर अपने कुर्सी से उठे....वाह बेटा.... यही इमोशन हम ढूंढ रहे थे तुममें.....तुम बेमिशाल साबित होंगे। हम उनका गले लग गए पर रो अब भी रहे थे।
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हम सोच लिए थे सरकारी पुल बने-ना -बने हम अपने सरोज के लिए पुल बनाएंगे। आज सुबह जब घाट किनारे गए त एगो मल्लाह से पूछे......का हो इसमें सब दिन एतना ही पानी रहता है घटबो-बढ़बो करता है। 
मल्लाह बोला ना मालिक बरसात में पानी जरा बढ़ता है पर पानी इहे रफ्तार से बहता रहता है।
मन में संतोष हुआ
हम फिर पूछे...सब जगह एतना ही गहरा है ई धारा की पानी कम भी है कंही?
मल्लाह बोला....उ जे सरकारी पम्प लगा है न जहां, उससे 10 फिट आगे नाव नहीं चलता।हुआँ पानी कम है।मिट्टी जम गया है ना। अब कोसिकी मैया हियों से रास्ता बदल लेगी कुछ दिन में। देखे नही है मालिक हुआँ से धारा पश्चिम के तरफ मुड़ जाता है। कुछ दिन में उ सब सुख के जमीन दिखने लगेगा।
मने मन दुआ दिए उसको उठ के चल दिये उ जगह का मुआयना करने।
हुआँ पहुंच के बांस का एगो करची तोड़े और ढुक गए पानी मे।
पहले करची से नापते थे फिर पैर आगे बढ़ाते थे।  देखते-देखते धारा के बीचो-बीच पहुंच गए पर पानी कमर से ऊपर नहीं चढ़ा। मारे खुशी के मन मयूरा नाचने लगा। कुछ और आगे बढ़े त दिल बाग-बाग हो गया एक तिहाई धारा पार कर लिए पर पानी उतना ही था। आगे जब करची डाले त एकदम से गड्ढा बुझाया। समझ गए कि बस इतना दूर ही डूबने लायक पानी है। मन मे कुछ ठान वहां से खुशी-खुशी वापस किनारे आ गए। बाहर आके बुदबुदाए अब त पुल बना के ही दम लेंगे। तेज कदम से घर के लिए चल दिये।
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आज रात में निने नहीं आया। कल से जो करना था उसका ताना-बाना दिमाग मे घूम रहा था। सुबह,सबेरे उठे  कुल्हाड़ी,कुदाल और डोरी लेके निकल गए घाट किनारे। पम्प के तरफ एकदम वीरान रहता था। मोहर बाबू का बांस का बगीचा था। सब कहते थे पम्प हाउस में काम करने वाले क्लर्क जो मरे थे उ भूत बनके उसी बंसबिट्टी में झूलते रहते थे। एक बार एक बार एगो घास काटने वाली को एतना पटके की प्राण निकल गया। उ दुपरिया और सांझ को खिखिया-खिखिया ई बांस से उ बांस झूलते रहता है। पहले त डर लगा फिर सोचे हम दोपहर और सांझ को उनको दिक्कत नही देंगे त उ भी हमका कुछ नही करेंगे। 
घाट किनारे पहुंच के खल्ली से 20 गो बांस में टिक लगाए।  सोच लिए थे खूंटा गार-गार के चचरी वाला पुल बनाएंगे।
अभी पहिला बांस पे चोट किये ही थे कुल्हाड़ी से की दू गो उल्लू खिखियाते उड़ा। हम सरपट जमीन पे लोट गए। हमको लगा क्लर्क का भूत को जगा दिए हम। आंख मूंद के भूत का क्रियाकलाप समझने की चेष्टा करने लगे।जब एगो आंख खोल के देखे त समझ मे आया उल्लू अपन बच्चा सबको बचाने का चेष्टा कर रहा।
हम फिर से बांस काटने लगे। बांस काट त लिए पर झोखर से उसको निकलना हमरे बस में नही लग रहा था। लगे जोर-आजमाइश करने। फिर दिमाग मे आया इसके सब करची को काट देते है अपने गिर जाएगा। किसी तरह एक बांस को काट के बाहर निकाल सके।पर ई एहसास हो गया कि ई अकेले के बस का रोग नही है। सो थक के बैठ के दिमाग दौड़ाने लगे।
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मन में एक बिचार आया ये पुल बनाना अकेले बूते की चीज नही।क्यों न एक सहयोगी ढूंढा जाए। बिचार दिमाग मे ले मै नदी किनारे टहलने लगा। एकाएक नजर उस लड़के (मंसुखवा)पर पड़ी जिसके केला के थाम वाले नाव पे हम ई पट्टी आए रहे।
हम जोड़ से आवाज दिए.....ओ रे मंसुखवा....अरे जरा एने आओ....वो फिर कोई गीत गा रहा था....बिना सुने अपना काम करता रहा
हम फिर आवाज दिए.....ओ ...रे....मनसुख.... अरे ऐने देखो
ई बार उ हमरे तरफ देखा....हुन झट इधर आने का इशारा किये।उ बोला का मालिक फिर उ पट्टी जाय के है का। हम नहीं बोलके आने का इशारा किये
वो लग्गा मार के हमरी तरफ बढ़ा
किनारे आ के बोल....का हुआ मालिक?
हम बोले सुनो न।हमको ईगो काम है तुमरे से.... उ हमरा चेहरा देखने लगा।
हम बोले।हमको एगो चचरी पुल बनाना है ई पट्टी से उ पट्टी तक। उधर का बच्चा सब स्कूल नहीं जा पाता है। हाट-बाजार भी आने में घंटो लगता है....हमारी इच्छा है थोड़ा सामाजिक कार्य करने का......देखो हमरी मदद करोगे त रोज हम तुमको कामनक 5 रुपिया देँगे।
उ पहिले सोच में डूबा....फिर बोला काम का है?
हम बोले 10-15 बांस काटके उसका पुल बनाना है।
उ थोड़ा आश्चर्य से बोला.....इससे का होगा? 
ह7म बोले अरे तुका मछली मारे और आने जाने में सुविधा होगा। लोग आ सकेंगे त दुआ देंगे। उ पट्टी का विकाश होगा।
उ बोला कठिन है मालिक.....बीच मे गड्ढा बहुत है बांस टिकेगा।
हम भड़ोसा दिलाए।ई पे कौन सा गाड़ी चलाना है।पैदल आने जाने का रास्ता होगा।सबका भला होगा।
उ मान गया।
हमको लगा उ मेरा सबसे अच्छा दोस्त बनेगा।
हम झट बोले एगो काम और करेगा।उ जे सरोज है ना उका एगो न्योता दे देना की हम पुल बना रहे है। सब अच्छा होगा। ई बार जन्माष्टमी देखने उ पल से आ सकेगी और ई बार हमहू नाटक में रोल कर रहे सो देखने जरूर आए।
मनसुख हां बोलके जाने को हुआ।हम बोले काल से हमलोग 6 बजके भोर में यंही मिलेंगे। रोज 2 घंटा साथ मे काम करेंगे। उ "जी" मालिक बोलके विदा हो गया
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आज हम घर आके दशरथ मांझी का जीवन चरित उल्टा के पढ़ने लगे।कैसे एक आदमी अपन प्यार के खातिर पहाड़ ढाह दिया। पूरा जीवन अपने प्रेमिका के सौंप दिया और अपने बुलंद इरादे से सबका द्वार खोल दिया।  अमर प्रेमी के इस घटना को पढ़ के दिल लबलबा के भर गया। हम बनूंगा दूसरा दशरथ मांझी। हम बनाऊंगा पुल अपने सरोज के लिए। हमरा नाम लिया जाएगा सबके द्वारा। हमरा प्रेम अमर होगा। पढ़ते पढ़ते आंख लग गई।
आंख खुली त छोटकी चाय लेके खड़ी थी। बोली का-का बुदबुदा रहे थे निन में....कहाँ जा रहे थे सरोज से मिलने....रो काहे रहे थे ?
हम सकपका गए। पर अब उ हमरी दोस्त बन गई थी सो सब बात उका बता दिए।
उ बोली भैया...ई बहुते कठिन काम होगा....लोग भी पता नही का-का बोलेंगे। बात खुल गई त हंगामा होगा।
हम उका ढाढस बंधा के बोले....देख छोटकी इससे कुछ बूरा त होना नहीं है। अगर कोई बोलेगा त हम भी बोल देंगे समाज के भलाई के लिए कर रहे। अगर ज्यादा बात बढ़ी त पुल उजाड़ देंगे...हमहू त देखे फिर ककरा औकात है  ई सब करेका। ले तू भी ई किताब पढ़ लेना।देखना दुनिया मे कैसे कैसे लोग हुए है जो दुनिया बदल देते है। मांझी वाली किताब उसके हाथ मे पकड़ा दिए।
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हमरे पास चार दिन बचा था। पुल भी बनाना रहा और रिहलसल भी पूरा करना था। आज जब रिहलसल के लिए पहुंचे त देह-हाथ टूट रहा था। बांस काटने और ढोने से कंधा दरद कर रहा था। पर मने-मन खुश थे।हमरी सरोज हमरा नाटक देख पाएगी। उ आज तक जन्माष्टमी का कउनो प्रोग्राम रात में नाही दिकह पाई थी। परिवार वाले लोग शाम ढलते-ढलते उ पट्टी निकल लेते थे। 
हम सिन का प्रैक्टिस करने लगे......एक पेड़ के नीचे उदास बैठे हम कोयल के कूकने पर रोते हुए गीत गा रहे थे.........
ना है संग मुरली मोरी
ना कोई संदेश रे
हिया में हिलकोर होत है मोरा
जाऊं कउनो देश रे.....
प्रीत की राह निहारूँ मैं तो
कौन धरु मैं भेष रे
तोरे कुक से, हुक उठे है मन मे
का ही बचा मोरे शेष रे......

......नायक रोते हुए चहलकदमी करता है। इतने में एक तक्षक उसको डस लेता है। वो भूमि पे गिरकर फिर गाता है

सांस की आस रही अब नाही
ना मन में,कोई क्लेश रे
बाट निहारूँ जोगी बनके
चंद मिनट अब शेष रे
..........धीरे -धीरे आंखे बंद करने लगता है। इतने में एक योगी का प्रवेश होता है। हाथ मे कमंडल,जटाजूट,बड़े बड़े कुंडल, ललाट पे चंदन और भगवा वस्त्र धारण किये। उसकी नजर भूमि पर परे नायक पर पड़ती है और वो तत्क्षण सब भांपते हुए कमंडल से जल हाथ मे ले मंत्र बुदबुदाता है......
बिछु,काटे,सांप काटे
काटे कोई तक्षक
इस दुनियां में सबके मालिक
ईश्वर है बस रक्षक
तू विष अपना लेजा वापस
क्यों ही बना है भक्षक
............पेड़ की कोटर से वही विशाल सांप,धीरे-धीरे रेंगता हुआ आता है और अपने काटे विष को फिर से वापस खींचने लगता है.... #हमरी प्रेम कहानी भाग 6

#findingyourself
हमरी प्रेम कहानी भाग 6
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जन्माष्टमी का मेला हमरे गांव का सालों से मशहूर था। बहुत सारा प्रतिमा और घमसान मेला लगता था। 3 दिन के इस आयोजन में हर दिन लोगों के मनोरंजन के लिए अलग अलग प्रोग्राम रखा जाता था। भजन-कीर्तन, लाउडस्पीकर का   शोर,मौत का कुआं,कठ झूला,मिठाई की तरह-तरह की दुकान,श्रृंगार की दुकान,जादूगरी का खेल, तिलिस्म का खेल,कुश्ती का आयोजन होता था। लोगों का हुजूम  दूसरे गांव से इस मेले को देखे पहुंचते थे। क्या कहे अद्वितीय नजारा होता थाI 
ई मेला में अलग-अलग वय के लोग अपने अपने झुंड में मेले का लुत्फ उठाने पहुचते थे। लोग अपन-अपन हिसाब से खरीददारी करते थे। किसी श्रृंगार की दुकान पे किसी महिला का नोक-झोंक चल रहा होता था त कंही कम पैसा ग्राहक के लौटाने के एवज में दुकानदार की शिकायत मेला कमिटी से हो रही होती थी। बीच-बीच मे लाउडस्पीकर पे किसी का बच्चा के खो जाने और उसे मंच पर आके ले जाने की घोषणा हो रही होती थी। चिल्ल-पों ई कदर मचा होता था कि पास खड़ा आदमी का बोल रहा है उहो न सुनई देता था। 
मेले का एगो और खासियत था। इ मेले के बहाने केतना आशिक अपने प्रेयसी को देख,आर मिल पाते थे। नशेड़ियों को लगभग नशे की छूट मिल जाती थी। गिरहकट अपनी विद्या आजमा लेते थे। ठग अपने इरादे बुलंद कर लेते थे। और त और कई नई प्रेमकथा की नींव भी इस मेले के दौरान जम जाती थी।
तरह-तरह के फ्रॉक,सलवार-शूट, साड़ी में कृत्रिम श्रृंगार से लदी लड़की-स्त्रियां। नये-नये शर्ट-पेंट में नौजवान, नयी धोती-कुर्ता और गमछे में बुजुर्ग। पैसा-रुतवा-सुंदरता और सजावट का अजीब संगम होता था।
मेले के अद्भुत आनंद को हर कोई अपने जेहन में कैद कर लेना चाहता था। किसे परवाह की बारिश के कारण कंही कीचड़ है,पसीने की बू आ रही या इत्र मेहक रहा है। बस इस तीन दिन को जी लेना था।
इस बार के मेले में " प्रेम-पथिक" एक नाटक का आयोजन किया गया था। हमको इसमें प्रेमी का रोल मिला। सुख-दुख,मिलन-बिछड़न और अंत मे प्रेम करने की सजा बड़ा उम्दा किरदार था। एगो मुसलमान लड़की से हिन्दू लड़का का प्रेम होना फिर समाज मे पंचायत होना,धर्म परिवर्तन का जोर और अंत मे धोखा और सजा दिया जाना। भोलन चाचा हमको हमरा स्क्रीप्ट पकड़ा के बोले"बेटा तुमका ई रोल अमर बना देगा गांव में"। हमको ऐसा लगा कि हमर फ्यूचर बता रहे। स्क्रीप्ट को खूब रट्टा मारे।रोज शाम को रेहलसल करते।कउनो कमी होती त पुरजोर मेहनत कर उसको सुधारते।पर तबहियो दिल धधकते रहता था।कैसे मंच पे एतना भीड़ के सामने इसको निभाएंगे? कुछ गड़बड़ हुआ त सब किस्सा और मजाक उड़ाएगा। पर अपन प्रेम कहानी समझ मजबूत इरादे से भिड़ गए नाटक के तैयारी में।
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रिहलसल का 10वां दिन था। भोलन चाचा बिदके हुए थे..... अबे तुमरा में सुधार होगा कि नहीं..... ई बार-बार नौरोज की जगह सरोज काहे बोल जाते हो बे....नही संभल रहा त बोलो अभियो टाइम है....किसी दूसरे को दे दें ई रोल.....मजाक बना दिये हो।
हम बोले नहीं चच्चा उ मुसलमान नाम है ना त जीभ फिसल जाता है। बांकी त एकदम सहिये कर रहे।इसको भी सुधार लेंगे।
भोलन चाचा बोले मात्र 4 दिन बचा है मंच पे उतरने को यही चलता रहा त ठीक नहीं होगा।करो फिर से रियाज....
हम डायलॉग बोले" देखो नौरोज,सांस चली जाएगी, ये दुनियाँ नष्ट हो जाएगी पर मेरी सांसे तुम्हारे लिए होगी।ये दिल तुम्हारे लिए धड़केगा। मैं रूह में तब्दील होकर भी बस तुम्हे ही चाहूंगा......अब तो मेरा भड़ोसा करो....चलो मेरे साथ इस दुनियां से दूर....इस शहर से दूर....ये समाज मेरा तुम्हारा नहीं है.....ये धड़कनों को नही सुन सकते.....जिंदा लाश हैं ये सब......बस जात-धर्म और नफरत में जीने वाले ये जिंदा लाश है....अगर हमें साथ जीना है तो इन सबसे दूर जाना होगा.....देखो,मत सोचो.... कौन अपना है....कौन पराया....मैं हूँ ना तुम्हारे साथ..... आओ मेरा हाथ थाम लो....बस चल चलो.....इससे पहले की देर हो जाए। इतना बोलके हम सचमुच घुटने के बल बैठ के रो दिए....सचमुच का आंसू बहने लगा।
चच्चा ताली बजाकर अपने कुर्सी से उठे....वाह बेटा.... यही इमोशन हम ढूंढ रहे थे तुममें.....तुम बेमिशाल साबित होंगे। हम उनका गले लग गए पर रो अब भी रहे थे।
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हम सोच लिए थे सरकारी पुल बने-ना -बने हम अपने सरोज के लिए पुल बनाएंगे। आज सुबह जब घाट किनारे गए त एगो मल्लाह से पूछे......का हो इसमें सब दिन एतना ही पानी रहता है घटबो-बढ़बो करता है। 
मल्लाह बोला ना मालिक बरसात में पानी जरा बढ़ता है पर पानी इहे रफ्तार से बहता रहता है।
मन में संतोष हुआ
हम फिर पूछे...सब जगह एतना ही गहरा है ई धारा की पानी कम भी है कंही?
मल्लाह बोला....उ जे सरकारी पम्प लगा है न जहां, उससे 10 फिट आगे नाव नहीं चलता।हुआँ पानी कम है।मिट्टी जम गया है ना। अब कोसिकी मैया हियों से रास्ता बदल लेगी कुछ दिन में। देखे नही है मालिक हुआँ से धारा पश्चिम के तरफ मुड़ जाता है। कुछ दिन में उ सब सुख के जमीन दिखने लगेगा।
मने मन दुआ दिए उसको उठ के चल दिये उ जगह का मुआयना करने।
हुआँ पहुंच के बांस का एगो करची तोड़े और ढुक गए पानी मे।
पहले करची से नापते थे फिर पैर आगे बढ़ाते थे।  देखते-देखते धारा के बीचो-बीच पहुंच गए पर पानी कमर से ऊपर नहीं चढ़ा। मारे खुशी के मन मयूरा नाचने लगा। कुछ और आगे बढ़े त दिल बाग-बाग हो गया एक तिहाई धारा पार कर लिए पर पानी उतना ही था। आगे जब करची डाले त एकदम से गड्ढा बुझाया। समझ गए कि बस इतना दूर ही डूबने लायक पानी है। मन मे कुछ ठान वहां से खुशी-खुशी वापस किनारे आ गए। बाहर आके बुदबुदाए अब त पुल बना के ही दम लेंगे। तेज कदम से घर के लिए चल दिये।
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आज रात में निने नहीं आया। कल से जो करना था उसका ताना-बाना दिमाग मे घूम रहा था। सुबह,सबेरे उठे  कुल्हाड़ी,कुदाल और डोरी लेके निकल गए घाट किनारे। पम्प के तरफ एकदम वीरान रहता था। मोहर बाबू का बांस का बगीचा था। सब कहते थे पम्प हाउस में काम करने वाले क्लर्क जो मरे थे उ भूत बनके उसी बंसबिट्टी में झूलते रहते थे। एक बार एक बार एगो घास काटने वाली को एतना पटके की प्राण निकल गया। उ दुपरिया और सांझ को खिखिया-खिखिया ई बांस से उ बांस झूलते रहता है। पहले त डर लगा फिर सोचे हम दोपहर और सांझ को उनको दिक्कत नही देंगे त उ भी हमका कुछ नही करेंगे। 
घाट किनारे पहुंच के खल्ली से 20 गो बांस में टिक लगाए।  सोच लिए थे खूंटा गार-गार के चचरी वाला पुल बनाएंगे।
अभी पहिला बांस पे चोट किये ही थे कुल्हाड़ी से की दू गो उल्लू खिखियाते उड़ा। हम सरपट जमीन पे लोट गए। हमको लगा क्लर्क का भूत को जगा दिए हम। आंख मूंद के भूत का क्रियाकलाप समझने की चेष्टा करने लगे।जब एगो आंख खोल के देखे त समझ मे आया उल्लू अपन बच्चा सबको बचाने का चेष्टा कर रहा।
हम फिर से बांस काटने लगे। बांस काट त लिए पर झोखर से उसको निकलना हमरे बस में नही लग रहा था। लगे जोर-आजमाइश करने। फिर दिमाग मे आया इसके सब करची को काट देते है अपने गिर जाएगा। किसी तरह एक बांस को काट के बाहर निकाल सके।पर ई एहसास हो गया कि ई अकेले के बस का रोग नही है। सो थक के बैठ के दिमाग दौड़ाने लगे।
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मन में एक बिचार आया ये पुल बनाना अकेले बूते की चीज नही।क्यों न एक सहयोगी ढूंढा जाए। बिचार दिमाग मे ले मै नदी किनारे टहलने लगा। एकाएक नजर उस लड़के (मंसुखवा)पर पड़ी जिसके केला के थाम वाले नाव पे हम ई पट्टी आए रहे।
हम जोड़ से आवाज दिए.....ओ रे मंसुखवा....अरे जरा एने आओ....वो फिर कोई गीत गा रहा था....बिना सुने अपना काम करता रहा
हम फिर आवाज दिए.....ओ ...रे....मनसुख.... अरे ऐने देखो
ई बार उ हमरे तरफ देखा....हुन झट इधर आने का इशारा किये।उ बोला का मालिक फिर उ पट्टी जाय के है का। हम नहीं बोलके आने का इशारा किये
वो लग्गा मार के हमरी तरफ बढ़ा
किनारे आ के बोल....का हुआ मालिक?
हम बोले सुनो न।हमको ईगो काम है तुमरे से.... उ हमरा चेहरा देखने लगा।
हम बोले।हमको एगो चचरी पुल बनाना है ई पट्टी से उ पट्टी तक। उधर का बच्चा सब स्कूल नहीं जा पाता है। हाट-बाजार भी आने में घंटो लगता है....हमारी इच्छा है थोड़ा सामाजिक कार्य करने का......देखो हमरी मदद करोगे त रोज हम तुमको कामनक 5 रुपिया देँगे।
उ पहिले सोच में डूबा....फिर बोला काम का है?
हम बोले 10-15 बांस काटके उसका पुल बनाना है।
उ थोड़ा आश्चर्य से बोला.....इससे का होगा? 
ह7म बोले अरे तुका मछली मारे और आने जाने में सुविधा होगा। लोग आ सकेंगे त दुआ देंगे। उ पट्टी का विकाश होगा।
उ बोला कठिन है मालिक.....बीच मे गड्ढा बहुत है बांस टिकेगा।
हम भड़ोसा दिलाए।ई पे कौन सा गाड़ी चलाना है।पैदल आने जाने का रास्ता होगा।सबका भला होगा।
उ मान गया।
हमको लगा उ मेरा सबसे अच्छा दोस्त बनेगा।
हम झट बोले एगो काम और करेगा।उ जे सरोज है ना उका एगो न्योता दे देना की हम पुल बना रहे है। सब अच्छा होगा। ई बार जन्माष्टमी देखने उ पल से आ सकेगी और ई बार हमहू नाटक में रोल कर रहे सो देखने जरूर आए।
मनसुख हां बोलके जाने को हुआ।हम बोले काल से हमलोग 6 बजके भोर में यंही मिलेंगे। रोज 2 घंटा साथ मे काम करेंगे। उ "जी" मालिक बोलके विदा हो गया
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आज हम घर आके दशरथ मांझी का जीवन चरित उल्टा के पढ़ने लगे।कैसे एक आदमी अपन प्यार के खातिर पहाड़ ढाह दिया। पूरा जीवन अपने प्रेमिका के सौंप दिया और अपने बुलंद इरादे से सबका द्वार खोल दिया।  अमर प्रेमी के इस घटना को पढ़ के दिल लबलबा के भर गया। हम बनूंगा दूसरा दशरथ मांझी। हम बनाऊंगा पुल अपने सरोज के लिए। हमरा नाम लिया जाएगा सबके द्वारा। हमरा प्रेम अमर होगा। पढ़ते पढ़ते आंख लग गई।
आंख खुली त छोटकी चाय लेके खड़ी थी। बोली का-का बुदबुदा रहे थे निन में....कहाँ जा रहे थे सरोज से मिलने....रो काहे रहे थे ?
हम सकपका गए। पर अब उ हमरी दोस्त बन गई थी सो सब बात उका बता दिए।
उ बोली भैया...ई बहुते कठिन काम होगा....लोग भी पता नही का-का बोलेंगे। बात खुल गई त हंगामा होगा।
हम उका ढाढस बंधा के बोले....देख छोटकी इससे कुछ बूरा त होना नहीं है। अगर कोई बोलेगा त हम भी बोल देंगे समाज के भलाई के लिए कर रहे। अगर ज्यादा बात बढ़ी त पुल उजाड़ देंगे...हमहू त देखे फिर ककरा औकात है  ई सब करेका। ले तू भी ई किताब पढ़ लेना।देखना दुनिया मे कैसे कैसे लोग हुए है जो दुनिया बदल देते है। मांझी वाली किताब उसके हाथ मे पकड़ा दिए।
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हमरे पास चार दिन बचा था। पुल भी बनाना रहा और रिहलसल भी पूरा करना था। आज जब रिहलसल के लिए पहुंचे त देह-हाथ टूट रहा था। बांस काटने और ढोने से कंधा दरद कर रहा था। पर मने-मन खुश थे।हमरी सरोज हमरा नाटक देख पाएगी। उ आज तक जन्माष्टमी का कउनो प्रोग्राम रात में नाही दिकह पाई थी। परिवार वाले लोग शाम ढलते-ढलते उ पट्टी निकल लेते थे। 
हम सिन का प्रैक्टिस करने लगे......एक पेड़ के नीचे उदास बैठे हम कोयल के कूकने पर रोते हुए गीत गा रहे थे.........
ना है संग मुरली मोरी
ना कोई संदेश रे
हिया में हिलकोर होत है मोरा
जाऊं कउनो देश रे.....
प्रीत की राह निहारूँ मैं तो
कौन धरु मैं भेष रे
तोरे कुक से, हुक उठे है मन मे
का ही बचा मोरे शेष रे......

......नायक रोते हुए चहलकदमी करता है। इतने में एक तक्षक उसको डस लेता है। वो भूमि पे गिरकर फिर गाता है

सांस की आस रही अब नाही
ना मन में,कोई क्लेश रे
बाट निहारूँ जोगी बनके
चंद मिनट अब शेष रे
..........धीरे -धीरे आंखे बंद करने लगता है। इतने में एक योगी का प्रवेश होता है। हाथ मे कमंडल,जटाजूट,बड़े बड़े कुंडल, ललाट पे चंदन और भगवा वस्त्र धारण किये। उसकी नजर भूमि पर परे नायक पर पड़ती है और वो तत्क्षण सब भांपते हुए कमंडल से जल हाथ मे ले मंत्र बुदबुदाता है......
बिछु,काटे,सांप काटे
काटे कोई तक्षक
इस दुनियां में सबके मालिक
ईश्वर है बस रक्षक
तू विष अपना लेजा वापस
क्यों ही बना है भक्षक
............पेड़ की कोटर से वही विशाल सांप,धीरे-धीरे रेंगता हुआ आता है और अपने काटे विष को फिर से वापस खींचने लगता है.... #हमरी प्रेम कहानी भाग 6

#findingyourself