इस ज़िन्दगी को मौत के क़दमों में डाल के लो आ गया में शाह की पगड़ी उछाल के .. तामीर कर रहा हूँ में खामोशियों का घर आवाज़ के मकान की ईंटे निकाल के .. वो खुल्द हो ज़मीन हो या के हो कोहकाफ़ चर्चे हैं हर जगह पे तुम्हारे जमाल के .. उसको भंवर को खौफ दिखाना फ़िज़ूल हे जो आ रहा हो सात समंदर खंगाल के .. कल शब् टपक रहे थे मुहब्बत के बाग़ में इक हिज्र के गुलाब से क़तरे विसाल के .. ये कौन रख गया हे मेरे अर्ज़-ए-फिक्र पर सूरज का जिस्म मोम के सांचे में ढाल के .. हे ज़िन्दगी का ऐसी अदालत में केस दर्ज होता हे फैसला जहां सिक्का उछाल के .. प्यासा ही आ गया तेरा "इमरान" आज फिर अपने लबों की आंच से दरिया उबाल के .. ...इमरान फारुकी... A.. J (sHâYàRï) 🗨🗯📜📙