अपनी टेढ़ी-मेढ़ी रोटी देखती हूँ और सोचती हूँ देखा है मैंने माँ को चौके में बात चौका देने वाली है पर पीढ़ियों से इतनी प्रचलित कि सहज सी हो गई है सबके लिए माँ कैसे बना लिया करती थी रोटियाँ इतनी गोल इतनी मुलायम परिधि पर दो फाहे में बँट जाती वो रोटियाँ! सिर्फ रोटियाँ नहीं थी मन था माँ का जिसे साध लिया था उसने सीमाओं की परिधि में बना लिया था आधार परिवार को बँट गया था उसका मन दो फाहो में जिसे फिर भी उसने अलग नहीं किया खुद को नहीं जिया...और बीचोबीच मन का गुबार फूलता फूटने को उद्यत पर बड़ी कलाकार थी वो अपनी थपकी से ये ताप उतार लाती और ये नमी कर देती रोटियों को मुलायम और जलने से पहले वो परोस देती अपने सपने सबकी थाली में और बिना अफसोस के हर कोई निगलता रहा उसके सपने... अब नई पीढ़ियों को देखिए परम्परा है इन्हें भी बाध्य किया जाता है सध जाने को इसी परिधि में पर ये टेढ़ी-मेढ़ी रोटियाँ जताती हैं विरोध इस सधी हुई परिधि के प्रति #contextingmotherhood