मैं एक सुलझी पहेली सा,उनकी आंखों में गहरे राज थे। मैं तौबा करता गुनाहों से, कातिल उनके अंदाज थे। आखिर किस हाल में मुकम्मल होती मेरी मोहब्बत मैं बाशिंदा जमीन का, वो तलबगार परवाज के।। तलबगार परवाज के