बीच भंवर में,दूर डगर में, ये खयालों की कश्ती कभी इस छोर तो कभी उस छोर है डगमगाती जाना है किस डगर ये तब तक नहीं बतलाती जब तक दृढ़ निश्चय कर ना लिया हो गोते खाती है और खाती जाती है विनाश की ओर तब तक लिए चले जाती है जब तक औरों से जलते है हम मंज़िल और किनारे में होती है थोड़ी सी दूरी मगर अफसोस तब तक हमें नज़र नहीं आती जब तक खुद के दिल को साफ कर लेते नही हम वजह हो कोई ठोस या बेवजह भी तुम फिर किसी पर उंगली नही उठाते डगर डगर घूम कर भी कश्ती पानी में ही डूबती है जिसपर होता है कश्ती को भी घमंड फिर वही से सबसे गहरी चोट वो खाती है होकर घायल अपने से फिर वो उसी में डूब कर कहीं गुम हो जाती है अपनी और शांत सी दिखने वाली चीज़ भी तुम्हे तोड़ कर फिर ज़रूर जाती है तुम दुबारा न टूटो किसी अपने के हाथ ऐसा सबक जरूर सिखा कर जाती है ख्यालों में डूब गए तो फिर अपने ही हाथो बेवजह मारे जाते है लोग देख दूसरे की खुशियां फिर अपनी खुशियां देख कभी नहीं पाते ऐसे लोग, ख्यालों की कश्ती ना घूमे डगर डगर तो तुम जो दिया है कुदरत ने उसका शुक्र अता फरमाओ To be continued..... ©Nikhat Saifi #ख्यालों_की_कश्ती