ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए बड़ी होना चाहती थी मगर देखो ना, ज़िंदगी ने जिमेदारियों से लाद दिया। बचपन ये सोच कर बीता की बड़ों को अपनी मन का करने की आज़ादी है। कुछ भी खा लो, कुछ भी पहन लो, किसी से भी दोस्ती कर लो। काश मैं भी बड़ी हो जाती ताकि ख्वाबों को मैं भी पूरा कर पाऊं। आज जब बड़ी हो गई हूं तो ज़िंदगी कहती है की मुझ पर जिमेदारियोंं का कर्ज़ है! अमन बेच कर, ख्वाब त्याग कर, उन्हे पूरा करना होगा, वो भी शायद ज़िंदगी भर! आज फिर से बच्चा होने को जी करता है। न ख्वाहिशें होती, नाही ज़िमेदारी, कमसेकम एक सुकून तो रहता! "ज़िन्दगी ने एक मुकाम पाया है, सतही पर दग्ध तमाम पाया है। श्रम