नियमानुसार आज भी वो आया था; और जोड़ गया मेरा मन कई सवालों के साथ। कल्पना के सागर में गोते लगाते लगाते, सवालों के उत्तर ढूँढते ढूँढते, मैं अन्य सवालों के जंजाल में झूझ गई। अंततः यादों ने अपना पिटारा खोल दिया! हमारे जीवन में, कई यादें, बस उस कबूतर जैसी हैं। अनूठी नहीं, पर नियम सी हैं। प्रतिदिन दस्तक देती हैं।मन को विचलित कर, उड़ जाती हैं। कुछ जानती हैं, समझती हैं, कुछ इशारा करती हैं.. कोई एहसास नहीं जगाती, बस छोड़ जाती हैं कुछ अधूरी उलझाती पहेलियाँ.. (अनुशीर्षक में पढ़े) प्रतिदिन सवेरे ६.३०-७.०० के आस पास, अलार्म से झूझकर, मैं अक्सर पलट कर बालकनी की ओर मुँह फेर कर, लेटी रहती हूँ। सर्दियों में तो कंबल के बाहर पैर रखने का मन ही नहीं करता। बालकनी के शीशे से तकती रहती हूँ, ऊँची निर्जीव इमारतों को, जिनमें न जाने कितनी कहानियाँ साँसें ले रहीं हैं। ग़नीमत है कि आज भी इनके बीच जीव मात्र का प्रमाण मिल जाता है, अर्थात कुछ पुराने पेड़ अब भी सुरक्षित हैं। कभी ना सोने वाली मुंबई नगरी में, या ऐसा कहूँ कि हमेशा जगते जगमगाते शहर में, सवेरे से ही ट्रैफ़िक जाम लग जाता है