रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने मेरी कोशिश थी कि कमबख़्त को नींद आ जाए! रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने मेरी कोशिश थी कि कमबख़्त को नींद आ जाए देर तक आंखों में चुभती रही तारों की चमक देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए