प्रेम की जुती हुयी मिट्टी की जमीन.. समर्पण की उर्वरता लिए हुए.. फिर भी इसके भाग्य का.. एक कोना ऊसर हो गया.. एकदम से एक दरार पड़ गयी.. प्रेम के माथे पर कलंक सा उभर आया.. त्याग के बादलों ने नैनों के नीर से.. प्रेम की जमीन को.. बरसों बरस जी भरकर भिगोया.. और...वो अरसे तक निश्छल भाव से.. खुद में सब सोखती गयी.. फिर जीवन के उस मरू धरातल पर.. अहसासों,संवेदनाओं और दर्द की बाढ़ आ गयी.. जिसमें प्रीत,विश्वास सब बहकर.. उससे कोसों दूर चले गए.. #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_में #कलंक प्रेम की जुती हुयी मिट्टी की जमीन.. समर्पण की उर्वरता लिए हुए.. फिर भी इसके भाग्य का.. एक कोना ऊसर हो गया..