वो पेशानी का पसीना पोंछता है, उसके कलेजे पर शिला-लेख से गुदे पड़े हैं उसके आदर्श, उसे याद है माँ की दी पहली सीख से कल की हार का अनकहा परामर्श। उसने देखा है जंगल को जलते, उसने देखा था उसी जंगल में फल-फूलों को फलते, उसने पाया है धूआँ और शोर, उसने प्रतीक्षा में गुजारी है सैंकड़ों शामें, अनगिनत प्रहरें और। सब सब कुछ देखते हैं, मैं पर्वत पर उसके हथौड़े की चोट देखता हूँ, लोग वक़्त-बेवक़्त देखते हैं, मैं नित-रोज देखता हूँ। उसे बंधे हाथों पर खीजना था, उसे अपनी मजबूरी पर बुजुर्ग और पर्वत