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"वैश्विक समाज की शवाधान प्रणालियों में अन्तर एवं उ

"वैश्विक समाज की शवाधान प्रणालियों में अन्तर एवं उनकी ऐतिहसिक पृष्ठभूमियाँ : जमींन-जिहाद के आलोक में।" 
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             वैश्विक समाज में जनगत मानसिकता आज जिस तरह साम्प्रदायिक चरमपंथ में वैमनस्य का शिकार हो रही है, ऐसे में वहीं इन्हीं से जुड़ा हुआ एक ज्वलंत प्रकरण जमींन जिहाद का भी है। जहाँ एक ओर का कट्टरतावादी दृष्टिकोंण शवाधान की दफ़न किये जाने की पद्धति को बढ़ावा दे रहा है तो वहीं दूसरी ओर शवाधान की अग्निदाह प्रणाली को अपनाये जाने को लेकर जोर। ऐसी स्थितियों में वर्तमान समाज को सर्वसम्मति से उक्त मुद्दे को लेकर एक सम्यक समझ विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके लिए मानव समाज के विकास की आदिम से आधुनिकता तक की पूर्वाग्रह एवं परम्परावादी विचारधारा से मुक्त होकर परिवर्तनीय यात्राओं को भौगोलिक एवं ऐतिहासिक आलोकों में देखना अनिवार्य है। मानव समाज हमेशा से जीवन जीने की आदतों एवं मान्यताओं के अनुपालन को लेकर परिवर्तनशील रहा है। विज्ञान एवं नव प्रौद्योगिकी के विकास ने सुगम एवं नवीनतम् जीवन जीने के बहुत से आयामों को मानव समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है और इस मानव समाज ने भी जीवन मूल्यों के पारम्परिक मान्यताओं को ताक पर रखकर इन्हें इन नवीन मूल्यों के साथ निःसंकोच प्रतिस्थापित किया है। ऐसे में यदि हम आज के सार्विक परिस्थितियों के अनुकूल एवं अनुकरणीय नवीन विचारधाराओं का विरोध करते हैं तो यह हमारे समाज के लिये कदापि हितकर नहीं होगा। शवाधान की वर्तमान में जो पद्धतियां प्रचलन में हैं वह आख़िर आदिम मानव समाज में तो नहीं थी, अतः ऐसे में ये हमारे समाज का अनिवार्य अंग कैसे बनी। इनके पीछे के कारणों एवं दृष्टांतों को समझना आवश्यक हो जाता है। हालांकि मैं समाज अथवा इतिहास का छात्र नहीं रहा, फिर इस विषय पर अपने निजी विवेचित दृष्टांतों को अभिव्यक्त कर रहा हूँ, यदि इससे किसी के भी मूल्य आहत होते हों तो वह हमारे लेख से स्वेच्छानुसार दूरी बना सकता है। 
                जहाँ तक शवाधान के विषय में हमारी समझ है, उससे तो हमें यह स्पष्ट है कि यह एक अनुकूलित सामाजिक व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि हम आदिम समाज को देखें तो यह ज्ञात होता है कि उस समय जब महापाषाणकालिक आदम व्यक्तियों की मृत्यु होती रही होगी तो उसने अग्निज्ञान के अभाव शवसड़ांध के दुर्गन्ध से बचाव हेतु जिस शवाधान प्रणाली का सूत्रपात किया होगा वह शवों को स्वक्षेत्रीय सुदूरवर्ती स्थानों पर छोड़ आने की पद्धति रही होगी। परन्तु जब जनसंख्या बल ने विस्तार लिया होगा और मृतकों की संख्या में वृद्धि हुई होगी अथवा अतितीक्ष्ण दुर्गन्ध एवं परिमार्जित जीवों के एकत्रण से निवास निकेतों के निकट किसी असुविधा का अनुभव किया होगा तो उसने शवाधान की नवीन पद्धति 'खामोश-प्रहरी' के निर्माण को अपनाया होगा। इसमें किसी गर्त में शवों को भूमिगत (दफ़न) कर बड़े-बड़े शिलाखण्डों से आवरित किया जाता था, परिणामतः लगभग 3000 वर्ष पूर्व महापाषाण कब्रें बनाने की प्रथा ने आकार ग्रहण किया। परन्तु वैश्विक भौगोलिकता में इस प्रथा का अनुसरण एक दुष्कर कार्य बनता गया, इन महाशिलाखण्डों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना अत्यन्त दुरुह हो गया। मरुभूमिय, पठारी, मैदानी, एवं हिमशीतित क्षेेत्रों के समाजों में इनकी अनुपलब्धता भी महापाषाण कब्रों के निर्माण में राह का रोड़ा बनकर सामने आ गई। ऐसी स्थितियों में शवाधान की किसी अन्य विधा को जन्म दिया जाना अनिवार्य हो गया, क्योंकि यह समुदायों/कबीलों के नायकों के लिये अधिकाधिक सामाजिक श्रम उपयोग से संभव तो अवश्य हुआ, परन्तु समाज के सामान्य जनमानस के लिए वही लोहे का चना बना रहा। परिणामस्वरूप शवों को हरसम्भव परिस्थितियों में केवल भूमिगत(दफ़न) ही किये जाने की शवाधान प्रणाली का अस्तित्व में आना हुआ। लेकिन शवों को भूमिगत करना सभी समाजों के लिए अभी भी इतना आसान नहीं था। मध्य एशिया एवं अन्य सभी वैश्विक मरूस्थलीय प्रदेशों (अरब, ईरान, ईराक आदि)  में चलने वाली अतितीव्र धूल-धूसरित आँधी, तूफान, वात-चक्रवात एवंं भंवरीय- पवनों से वहाँ पर भूूूस्खलन, भू-क्षरण इत्यादि को प्रतिदिन घटित होनेे वाली सामान्य प्राकृतिक घटनाओं के क्रम में देखा जाने लगा, जिससे ऐसी पारिस्थितिकी दशाओं में भूमिगत शवों के ऊपर की मृदा आवरण के शवों के विनष्ट या शवाधित होने से पूर्व ही अनाच्छादित होने का खतरा सामने प्रकट होने लगा। अब उनके समक्ष ऐसे परिवेश में सुरक्षित शवाधान हेतु उस पर गुम्बदाकृतिक टीलेनुमा क्षैतिज उच्चावच के निर्माण का ही एकमात्र विकल्प रहा, और इस प्रकार मज़ारों का कब्रों के ऊपर निर्माण प्रकाश में आया। कालान्तर में मरुभूमिय मानव समाज में यही शवाधान की सफल पद्धति हो जाने के कारण एक अनिवार्य अंग बनकर अर्व समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं में परिणित हो गया। पाषाणकाल की इसी कालधारा में आदिम समाज के मानवों ने अग्नि का प्रयोग करना भी सीख लिया था। जहाँ एक ओर मरूस्थलीय मानव समाज ने स्थानिक परिवेशों के अनुकूल शवाधान की 'मज़ार-कब्र' प्रणाली को विकसित कर लिया, वहीं दूसरी ओर मैदानी एवं तटीय भू-भागों के मानव समाज की भौतिक भौगोलिक परिस्थितिजन्य एक अलग ही समस्या थी, जहाँ शवाधानों की भूमिगत किये जाने की पद्धति असफल हो गई। खुले एवं स्वतन्त्र प्रकृति के मैदानी भागों में उस समय आधुनिक जलबन्ध जैसे अवरोध न विकसित हो पाने से जलप्लावन(बाढ़, सुनामी, जलीय चक्रवात) की अति विकट एवं भीषण त्रासदीजन्य समस्या थी, इसमें भूमिगत किये शवों को अति तीव्र जलप्लावन की जलधारायें भूमि में शवाधित मृदाओं को काटकर एवं अपपत्रित कर बहा ले जाती थी। ये सभी मानव बस्तियों के भीतर अवरोधित हो अतिदुर्गन्धमय वातावरण, संक्रामक रोगों एवं महामहामारियों को आमन्त्रण देने लगी। निष्कर्षतः शवों को भूमिगत किये जाने की शवाधान पद्धति जल स्रोतों(नदी, तट, घाटी)  के समीप विकसित हो रही मानव सभ्यता के लिए मुसीबत का पर्याय बन गई। जहाँ एक तरफ मानव समाज आग के प्रयोगों से परिचित हो चुका था वहीं मैदानी क्षेत्रों के मानव समाज के पास पेड़-पौधों की अकूत वन सम्पदाओं का स्रोत भी उपलब्ध था, जिससे उस काल के मैदानी क्षेत्रों के मानवीय समाजों ने लकड़ियों के माध्यम से शवों का अग्निदाह करना प्रारम्भ कर दिया, फलस्वरूप शवाधान की 'शवदाह(अग्निदाह)' की पद्धति ने आकार ग्रहण किया होगा और कुछ इस प्रकार शवाधान की एक नवीन परम्परा मानव समाज में स्वयं को प्रतिस्थापित करने में समर्थ रही। 
              यहाँ आपको ध्यातव्य हो कि जहाँ एक ओर मैदानी एवं मरुस्थलीय मानव समाज ने शवाधान की समस्याओं से निजात प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली, वहीं हिमशीतित एवं अतिवर्षित प्रदेशों( यूरोप, रूस, अमेरिका) में इस समस्या का निदान अभी शेष था। वहाँ की स्थानिक एवं पारिस्थितिकी पृष्ठभूमि ही सबसे विषम  थी। वहाँ वर्षपर्यन्त हिमवर्षण के अनवरत सत्र के चलते रहने से धरातलीय-पटलों की भू-पृष्ठभूमियाँ हिमाच्छादित रहती थी, जिससे हिमस्खलन एवं हिमगलन अतिसामान्य स्थितियाँ वहाँ की भूमिगत शवाधान प्रणालियों को चुनौती देने लगी। ऐसे में जब वहाँ के भूमिगत शवों को अपपत्रण का शिकार होना पड़ा होगा तो फिर वहाँ के मानवीय समाजों ने पुनः शवाधान की पद्धतियों पर मंथन किया होगा। चूंकि वे बंद काष्ठ गृह जिनकी बाह्यप
"वैश्विक समाज की शवाधान प्रणालियों में अन्तर एवं उनकी ऐतिहसिक पृष्ठभूमियाँ : जमींन-जिहाद के आलोक में।" 
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             वैश्विक समाज में जनगत मानसिकता आज जिस तरह साम्प्रदायिक चरमपंथ में वैमनस्य का शिकार हो रही है, ऐसे में वहीं इन्हीं से जुड़ा हुआ एक ज्वलंत प्रकरण जमींन जिहाद का भी है। जहाँ एक ओर का कट्टरतावादी दृष्टिकोंण शवाधान की दफ़न किये जाने की पद्धति को बढ़ावा दे रहा है तो वहीं दूसरी ओर शवाधान की अग्निदाह प्रणाली को अपनाये जाने को लेकर जोर। ऐसी स्थितियों में वर्तमान समाज को सर्वसम्मति से उक्त मुद्दे को लेकर एक सम्यक समझ विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके लिए मानव समाज के विकास की आदिम से आधुनिकता तक की पूर्वाग्रह एवं परम्परावादी विचारधारा से मुक्त होकर परिवर्तनीय यात्राओं को भौगोलिक एवं ऐतिहासिक आलोकों में देखना अनिवार्य है। मानव समाज हमेशा से जीवन जीने की आदतों एवं मान्यताओं के अनुपालन को लेकर परिवर्तनशील रहा है। विज्ञान एवं नव प्रौद्योगिकी के विकास ने सुगम एवं नवीनतम् जीवन जीने के बहुत से आयामों को मानव समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है और इस मानव समाज ने भी जीवन मूल्यों के पारम्परिक मान्यताओं को ताक पर रखकर इन्हें इन नवीन मूल्यों के साथ निःसंकोच प्रतिस्थापित किया है। ऐसे में यदि हम आज के सार्विक परिस्थितियों के अनुकूल एवं अनुकरणीय नवीन विचारधाराओं का विरोध करते हैं तो यह हमारे समाज के लिये कदापि हितकर नहीं होगा। शवाधान की वर्तमान में जो पद्धतियां प्रचलन में हैं वह आख़िर आदिम मानव समाज में तो नहीं थी, अतः ऐसे में ये हमारे समाज का अनिवार्य अंग कैसे बनी। इनके पीछे के कारणों एवं दृष्टांतों को समझना आवश्यक हो जाता है। हालांकि मैं समाज अथवा इतिहास का छात्र नहीं रहा, फिर इस विषय पर अपने निजी विवेचित दृष्टांतों को अभिव्यक्त कर रहा हूँ, यदि इससे किसी के भी मूल्य आहत होते हों तो वह हमारे लेख से स्वेच्छानुसार दूरी बना सकता है। 
                जहाँ तक शवाधान के विषय में हमारी समझ है, उससे तो हमें यह स्पष्ट है कि यह एक अनुकूलित सामाजिक व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि हम आदिम समाज को देखें तो यह ज्ञात होता है कि उस समय जब महापाषाणकालिक आदम व्यक्तियों की मृत्यु होती रही होगी तो उसने अग्निज्ञान के अभाव शवसड़ांध के दुर्गन्ध से बचाव हेतु जिस शवाधान प्रणाली का सूत्रपात किया होगा वह शवों को स्वक्षेत्रीय सुदूरवर्ती स्थानों पर छोड़ आने की पद्धति रही होगी। परन्तु जब जनसंख्या बल ने विस्तार लिया होगा और मृतकों की संख्या में वृद्धि हुई होगी अथवा अतितीक्ष्ण दुर्गन्ध एवं परिमार्जित जीवों के एकत्रण से निवास निकेतों के निकट किसी असुविधा का अनुभव किया होगा तो उसने शवाधान की नवीन पद्धति 'खामोश-प्रहरी' के निर्माण को अपनाया होगा। इसमें किसी गर्त में शवों को भूमिगत (दफ़न) कर बड़े-बड़े शिलाखण्डों से आवरित किया जाता था, परिणामतः लगभग 3000 वर्ष पूर्व महापाषाण कब्रें बनाने की प्रथा ने आकार ग्रहण किया। परन्तु वैश्विक भौगोलिकता में इस प्रथा का अनुसरण एक दुष्कर कार्य बनता गया, इन महाशिलाखण्डों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना अत्यन्त दुरुह हो गया। मरुभूमिय, पठारी, मैदानी, एवं हिमशीतित क्षेेत्रों के समाजों में इनकी अनुपलब्धता भी महापाषाण कब्रों के निर्माण में राह का रोड़ा बनकर सामने आ गई। ऐसी स्थितियों में शवाधान की किसी अन्य विधा को जन्म दिया जाना अनिवार्य हो गया, क्योंकि यह समुदायों/कबीलों के नायकों के लिये अधिकाधिक सामाजिक श्रम उपयोग से संभव तो अवश्य हुआ, परन्तु समाज के सामान्य जनमानस के लिए वही लोहे का चना बना रहा। परिणामस्वरूप शवों को हरसम्भव परिस्थितियों में केवल भूमिगत(दफ़न) ही किये जाने की शवाधान प्रणाली का अस्तित्व में आना हुआ। लेकिन शवों को भूमिगत करना सभी समाजों के लिए अभी भी इतना आसान नहीं था। मध्य एशिया एवं अन्य सभी वैश्विक मरूस्थलीय प्रदेशों (अरब, ईरान, ईराक आदि)  में चलने वाली अतितीव्र धूल-धूसरित आँधी, तूफान, वात-चक्रवात एवंं भंवरीय- पवनों से वहाँ पर भूूूस्खलन, भू-क्षरण इत्यादि को प्रतिदिन घटित होनेे वाली सामान्य प्राकृतिक घटनाओं के क्रम में देखा जाने लगा, जिससे ऐसी पारिस्थितिकी दशाओं में भूमिगत शवों के ऊपर की मृदा आवरण के शवों के विनष्ट या शवाधित होने से पूर्व ही अनाच्छादित होने का खतरा सामने प्रकट होने लगा। अब उनके समक्ष ऐसे परिवेश में सुरक्षित शवाधान हेतु उस पर गुम्बदाकृतिक टीलेनुमा क्षैतिज उच्चावच के निर्माण का ही एकमात्र विकल्प रहा, और इस प्रकार मज़ारों का कब्रों के ऊपर निर्माण प्रकाश में आया। कालान्तर में मरुभूमिय मानव समाज में यही शवाधान की सफल पद्धति हो जाने के कारण एक अनिवार्य अंग बनकर अर्व समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं में परिणित हो गया। पाषाणकाल की इसी कालधारा में आदिम समाज के मानवों ने अग्नि का प्रयोग करना भी सीख लिया था। जहाँ एक ओर मरूस्थलीय मानव समाज ने स्थानिक परिवेशों के अनुकूल शवाधान की 'मज़ार-कब्र' प्रणाली को विकसित कर लिया, वहीं दूसरी ओर मैदानी एवं तटीय भू-भागों के मानव समाज की भौतिक भौगोलिक परिस्थितिजन्य एक अलग ही समस्या थी, जहाँ शवाधानों की भूमिगत किये जाने की पद्धति असफल हो गई। खुले एवं स्वतन्त्र प्रकृति के मैदानी भागों में उस समय आधुनिक जलबन्ध जैसे अवरोध न विकसित हो पाने से जलप्लावन(बाढ़, सुनामी, जलीय चक्रवात) की अति विकट एवं भीषण त्रासदीजन्य समस्या थी, इसमें भूमिगत किये शवों को अति तीव्र जलप्लावन की जलधारायें भूमि में शवाधित मृदाओं को काटकर एवं अपपत्रित कर बहा ले जाती थी। ये सभी मानव बस्तियों के भीतर अवरोधित हो अतिदुर्गन्धमय वातावरण, संक्रामक रोगों एवं महामहामारियों को आमन्त्रण देने लगी। निष्कर्षतः शवों को भूमिगत किये जाने की शवाधान पद्धति जल स्रोतों(नदी, तट, घाटी)  के समीप विकसित हो रही मानव सभ्यता के लिए मुसीबत का पर्याय बन गई। जहाँ एक तरफ मानव समाज आग के प्रयोगों से परिचित हो चुका था वहीं मैदानी क्षेत्रों के मानव समाज के पास पेड़-पौधों की अकूत वन सम्पदाओं का स्रोत भी उपलब्ध था, जिससे उस काल के मैदानी क्षेत्रों के मानवीय समाजों ने लकड़ियों के माध्यम से शवों का अग्निदाह करना प्रारम्भ कर दिया, फलस्वरूप शवाधान की 'शवदाह(अग्निदाह)' की पद्धति ने आकार ग्रहण किया होगा और कुछ इस प्रकार शवाधान की एक नवीन परम्परा मानव समाज में स्वयं को प्रतिस्थापित करने में समर्थ रही। 
              यहाँ आपको ध्यातव्य हो कि जहाँ एक ओर मैदानी एवं मरुस्थलीय मानव समाज ने शवाधान की समस्याओं से निजात प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली, वहीं हिमशीतित एवं अतिवर्षित प्रदेशों( यूरोप, रूस, अमेरिका) में इस समस्या का निदान अभी शेष था। वहाँ की स्थानिक एवं पारिस्थितिकी पृष्ठभूमि ही सबसे विषम  थी। वहाँ वर्षपर्यन्त हिमवर्षण के अनवरत सत्र के चलते रहने से धरातलीय-पटलों की भू-पृष्ठभूमियाँ हिमाच्छादित रहती थी, जिससे हिमस्खलन एवं हिमगलन अतिसामान्य स्थितियाँ वहाँ की भूमिगत शवाधान प्रणालियों को चुनौती देने लगी। ऐसे में जब वहाँ के भूमिगत शवों को अपपत्रण का शिकार होना पड़ा होगा तो फिर वहाँ के मानवीय समाजों ने पुनः शवाधान की पद्धतियों पर मंथन किया होगा। चूंकि वे बंद काष्ठ गृह जिनकी बाह्यप