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सपनों की धूमिल तहखाना रखूं आधी अधुरी अपनी जन भाव र

सपनों की धूमिल तहखाना रखूं
आधी अधुरी अपनी जन भाव रखूं 
आजाद न हो, कि दिवाना कहूं
कुछ को छोड़ कर सब कुछ अपना कहूं 

एकांत मन की व्यथा सुनूं
उसमें में ख़ुद की खोती ख्याति दिखू
लो चल चल रे सुगना की क्रंदन सुनू
सुबह - शाम अपने अंदर की विकार सुनूं...

रसपान करू आंखों की उठती लालसा को
जिनके भाव में बस दुत्कार की ज्वाला देखूं
समझ उसकी चेतना का उगता सूरज की लाली देखूं
सच कहूं या झूठ कहूं, बस देख आंखों की त्याग कहूं

जिव्हा पर न रास आए उस अक्षर की नाम लिखूं
पर दृष्टि उन शब्दों को देख अपने ही ख्यालों में खो जाऊं
सब छोड़ ले चल.. चल रे  सुगना की क्रंदन सुनू ...
सुबह -शाम इस जीवन की विकार सुनूं...

©Dev Rishi
  #Hriday  विकार....
devrishidevta6297

Dev Rishi

Bronze Star
New Creator

#Hriday विकार.... #Poetry

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