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प्रेम में श्वास लेना प्रेम सदा नया होता है । वह

प्रेम में श्वास लेना

प्रेम सदा नया होता है । 
वह कभी पुराना नहीं होता 
क्योंकि वह कुछ इकट्ठा नहीं करता, कुछ  संगहीत नहीं करता ।

उसके लिए कोई अतीत नहीं है, 
वह हमेशा ताज़ा होता है, उतना ही ताज़ा जितने कि ओस । 
वह क्षण-क्षण जीता है, आणविक होता है । 
उसका कोई सातत्य नहीं होता, कोई परम्परा नहीं होती । 
प्रति पल मरता है और प्रति पल पुन:जन्मता है । 
वह श्वास की भाँति होता है: हम श्वास लेते हैं, श्वास छोड़ते हैं ; 
फिर श्वास लेते हैं, फिर छोड़ते हो । 
हम उसे भीतर  संभाल कर नहीं रखते ।

यदि हम श्वास को सम्हाल कर रखेंगे, हम मर जायेंगे 
क्योंकि वह बासी हो जायेगी, मुर्दा हो जायेगी । 
वह अपनी जीवन-शक्ति, जीवन की गुणवत्ता खो देगी । 
प्रेम की भी वही स्थिति होती है –– वह साँस लेता है, 
प्रतिपल स्वयं को नया करता है । 
तो जब कोई प्रेम में रुक जाता है और 
साँस लेना बन्द करता है, तो जीवन का समूचा अर्थ खो जाता है । 
और हमलोगों के साथ यही हो रहा है । 
मन इतना प्रभावी होता है कि,वह हृदय को भी प्रभावित करता है और 
हृदय को भी मालकियत जताने को मजबूर करता है । 
हृदय कोई मालकियत नहीं जानता 
लेकिन मन उसे प्रदूषित करता है, विषाक्त करता है ।

तो इसे ख्याल रखें, अस्तित्व के प्रेम में रहें । 
और प्रेम श्वास-उच्छ्वास की तरह रहें । 
श्वास लें, छोड़ें, लेकिन ऐसे जैसे प्रेम अन्दर आ रहा है 
और बाहर जा रहा है । 
धीरे-धीरे हर श्वास के साथ हमें प्रेम का जादू निर्मित करना है । 
इसे ध्यान बनायें: जब हम श्वास छोड़ेंगे, ऐसे महसूस करें कि 
हम अपना प्रेम अस्तित्व में उड़ेल रहे हैं । 
जब हम साँस ले रहे हैं तो,अस्तित्व अपना प्रेम हममें डाल रहा है । 
और शीघ्र ही हम देखेंगे कि हमारी श्वास की गुणवत्ता बदल रही है, 
फिर वह बिलकुल अलग ही हो जाती है 
जैसा कि पहले हमने कभी नहीं जाना था । 
इसीलिए भारत में हम उसे प्राण या जीवन कहते हैं 
सिर्फ श्वास नहीं, वह सिर्फ ऑक्सीजन नहीं है । 
कुछ और भी है, स्वयं जीवन ही ।

©पूर्वार्थ #“प्रेम”
प्रेम में श्वास लेना

प्रेम सदा नया होता है । 
वह कभी पुराना नहीं होता 
क्योंकि वह कुछ इकट्ठा नहीं करता, कुछ  संगहीत नहीं करता ।

उसके लिए कोई अतीत नहीं है, 
वह हमेशा ताज़ा होता है, उतना ही ताज़ा जितने कि ओस । 
वह क्षण-क्षण जीता है, आणविक होता है । 
उसका कोई सातत्य नहीं होता, कोई परम्परा नहीं होती । 
प्रति पल मरता है और प्रति पल पुन:जन्मता है । 
वह श्वास की भाँति होता है: हम श्वास लेते हैं, श्वास छोड़ते हैं ; 
फिर श्वास लेते हैं, फिर छोड़ते हो । 
हम उसे भीतर  संभाल कर नहीं रखते ।

यदि हम श्वास को सम्हाल कर रखेंगे, हम मर जायेंगे 
क्योंकि वह बासी हो जायेगी, मुर्दा हो जायेगी । 
वह अपनी जीवन-शक्ति, जीवन की गुणवत्ता खो देगी । 
प्रेम की भी वही स्थिति होती है –– वह साँस लेता है, 
प्रतिपल स्वयं को नया करता है । 
तो जब कोई प्रेम में रुक जाता है और 
साँस लेना बन्द करता है, तो जीवन का समूचा अर्थ खो जाता है । 
और हमलोगों के साथ यही हो रहा है । 
मन इतना प्रभावी होता है कि,वह हृदय को भी प्रभावित करता है और 
हृदय को भी मालकियत जताने को मजबूर करता है । 
हृदय कोई मालकियत नहीं जानता 
लेकिन मन उसे प्रदूषित करता है, विषाक्त करता है ।

तो इसे ख्याल रखें, अस्तित्व के प्रेम में रहें । 
और प्रेम श्वास-उच्छ्वास की तरह रहें । 
श्वास लें, छोड़ें, लेकिन ऐसे जैसे प्रेम अन्दर आ रहा है 
और बाहर जा रहा है । 
धीरे-धीरे हर श्वास के साथ हमें प्रेम का जादू निर्मित करना है । 
इसे ध्यान बनायें: जब हम श्वास छोड़ेंगे, ऐसे महसूस करें कि 
हम अपना प्रेम अस्तित्व में उड़ेल रहे हैं । 
जब हम साँस ले रहे हैं तो,अस्तित्व अपना प्रेम हममें डाल रहा है । 
और शीघ्र ही हम देखेंगे कि हमारी श्वास की गुणवत्ता बदल रही है, 
फिर वह बिलकुल अलग ही हो जाती है 
जैसा कि पहले हमने कभी नहीं जाना था । 
इसीलिए भारत में हम उसे प्राण या जीवन कहते हैं 
सिर्फ श्वास नहीं, वह सिर्फ ऑक्सीजन नहीं है । 
कुछ और भी है, स्वयं जीवन ही ।

©पूर्वार्थ #“प्रेम”