पराये काम को कोई कहाँ अपना बताता है कमाई हाथ की हो तो मज़ा कुछ और आता है महज यूँ धार छूने से नही मिलते कभी मोती जो टकराता है लहरों से समंदर को झुकाता है बिछाये राह में औरों के जो हर रोज़ ही काटें कहाँ फिर नींद को उसकी सुकूं या चैन भाता है सियासत में नही मंजूर था जो कल तलक उसको सियासतदार होते ही उसे अच्छा बताता है ©Piyush Shukla ग़ज़ल पराये काम को कोई कहाँ अपना बताता है कमाई हाथ की हो तो मज़ा कुछ और आता है महज यूँ धार छूने से नही मिलते कभी मोती जो टकराता है लहरों से समंदर को झुकाता है