तू सिमट आता है दिये की लौ में ज्यों-ज्यों तू क्षितिज के अंक में ढ़लता है इतना तो मैंने स्वयं से भी नहीं कहा मेरे 'दिनकर' मगर, सारी निशा तेरा ओज मेरे मुख पर मलय मलता है ! माटी की इस छोटी सराई में विहंगम सा जो तू लहलाता है है पता मुझे ये, कि मेरी आंखों की उद्विग्नता को तू अपनी धीमी आंच से बड़ी मृदुलता से सहलाता है बुझ जाती है मेरी हर प्यास जो पूरी रात मेरी आगोश में जलता है इतना तो मैंने स्वयं से भी नहीं कहा मेरे 'दिनकर' मगर, सारी निशा तेरा ओज मेरे मुख पर मलय मलता है ! जब तमस ढ़ल नया विहान मेरी निद्रा तोड़ता है तू चढ़ जाता है अम्बर और मुझे नितांत इकला छोड़ता है मैं बिस्तर की सलवटें संग खुद को समेट फिर तेरे आने की भाट भरती हूं माना बहुत कुछ है पूर्ण-अपूर्ण तेरे और मेरे मध्य मगर सुन ओ मेरे 'दिनकर' मैं सिर्फ़ तुम्हीं और तुम्हीं से प्यार करती हूं !! कविता अदृश प्रेम की ! निशा - रात मलय - चंदन सराई - दीपक विहंगम - जो आसमान में विचरण करता है उद्विग्नता - व्याकुलता तमस - अंधियारा