Nojoto: Largest Storytelling Platform

अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।। हो जीत नहीं, हो प्रीत न

अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।।

हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं,
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

अन्तर्द्वन्द्वओं ने महासमर में,
बन कर शत्रु ललकारा है।
बिन लड़े शस्त्र तज दूँ कैसे,
अन्तर्मन ने धिक्कारा है।
है कवच नहीं, कुंडल भी नहीं,
छद्म इंद्र कहो क्या मांगेगा।
सखा हेतु एक धर्म निभाने,
कर्ण ये फिर से जागेगा।
भगवन भी जो बन शत्रु आये,
अभय-दान नहीं मांग रहा।
परिभाषित होता मनुज कर्म से,
हर बाधा जो है लांघ रहा।
कभी मैं बढ़ता, कभी मैं रुकता,
रुक अन्तर्विवेचना करता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

बेर लिए कहाँ सबरी बैठी,
केवट ने कब नाव उतारा था।
अग्निपरीक्षा सीता थी देती,
आ कब किसने उबारा था।
मैं बाल्मीक मैं राम भी हूँ,
मेरी ही अग्नि परीक्षा रही।
लक्ष्मण रेखा भी मैंने लांघी,
अनन्त मेरी ही इक्षा रही।
निज को पढ़ना, निज को लिखना,
निज में ही संसार समाहित था।
भले बुरे में फर्क करूँ क्या,
धमनी रक्त वही तो प्रवाहित था।
कभी बैठ एकांतवास में,
घाव मैं अपने भरता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

भीष्म कहो बन जाऊं कैसे,
कैसे शर-शय्या पड़ा रहूँ।
रहूँ मूक द्रष्टा बन कैसे,
हो पाषाण मैं खड़ा रहूँ।
मैं दुर्योधन जंघा नहीं न द्रोण-ग्रीवा,
जो तोड़ा और उतारा जाउँ।
अब रहा अभिमन्यु भी नहीं,
फंस चक्रव्यूह जो मारा जाउँ।
भुजा मेरी भुजबल भी मेरा,
बन प्रचंड रण में उतरा।
हुंकार लिए, प्रलय लिए,
इस अखण्ड वन में उतरा।
विक्रम भी मैं, बेताल भी मैं,
प्रश्न स्वयं से करता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।।

हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं,
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

अन्तर्द्वन्द्वओं ने महासमर में,
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।।

हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं,
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

अन्तर्द्वन्द्वओं ने महासमर में,
बन कर शत्रु ललकारा है।
बिन लड़े शस्त्र तज दूँ कैसे,
अन्तर्मन ने धिक्कारा है।
है कवच नहीं, कुंडल भी नहीं,
छद्म इंद्र कहो क्या मांगेगा।
सखा हेतु एक धर्म निभाने,
कर्ण ये फिर से जागेगा।
भगवन भी जो बन शत्रु आये,
अभय-दान नहीं मांग रहा।
परिभाषित होता मनुज कर्म से,
हर बाधा जो है लांघ रहा।
कभी मैं बढ़ता, कभी मैं रुकता,
रुक अन्तर्विवेचना करता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

बेर लिए कहाँ सबरी बैठी,
केवट ने कब नाव उतारा था।
अग्निपरीक्षा सीता थी देती,
आ कब किसने उबारा था।
मैं बाल्मीक मैं राम भी हूँ,
मेरी ही अग्नि परीक्षा रही।
लक्ष्मण रेखा भी मैंने लांघी,
अनन्त मेरी ही इक्षा रही।
निज को पढ़ना, निज को लिखना,
निज में ही संसार समाहित था।
भले बुरे में फर्क करूँ क्या,
धमनी रक्त वही तो प्रवाहित था।
कभी बैठ एकांतवास में,
घाव मैं अपने भरता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

भीष्म कहो बन जाऊं कैसे,
कैसे शर-शय्या पड़ा रहूँ।
रहूँ मूक द्रष्टा बन कैसे,
हो पाषाण मैं खड़ा रहूँ।
मैं दुर्योधन जंघा नहीं न द्रोण-ग्रीवा,
जो तोड़ा और उतारा जाउँ।
अब रहा अभिमन्यु भी नहीं,
फंस चक्रव्यूह जो मारा जाउँ।
भुजा मेरी भुजबल भी मेरा,
बन प्रचंड रण में उतरा।
हुंकार लिए, प्रलय लिए,
इस अखण्ड वन में उतरा।
विक्रम भी मैं, बेताल भी मैं,
प्रश्न स्वयं से करता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।।

हो जीत नहीं, हो प्रीत नहीं,
अस्तित्व बचाता लड़ता हूँ।
एक जीवन ही मिला मगर,
कई बार मैं जीता मरता हूँ।

अन्तर्द्वन्द्वओं ने महासमर में,