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"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 'घराने' , मुरेड़ पर कि ज़

"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 
'घराने' ,
मुरेड़ पर
कि ज़मीर बिक गया 
उन इज़्ज़तदारों का ,
उसके 'कोठे' की चौखट पर"

•(caption)• माँ, बहन, बेटी, सखी, प्रेयसी, पत्नी और न जाने कितने रूप हैं स्त्री के । प्रत्येक रूप में वह सृष्टि की और समाज की पूरक है ,कहने भर मात्र ही सही, पर प्रत्येक वर्ग में सम्मानित है ।वो अलग बात है कि साहित्य व यथार्थ में ज़मीन आसमान का अंतर होता है । 
प्राचीन भारत हो या आधुनिक , समय बदला , संस्कृतियां बदलीं , वेश भूषाएँ बदलीं , सीधे शब्दों में कहें तो बहुत कुछ बदल गया । परिवर्तन की आबो हवा में वो दम था कि इन आइनों से गर्दिश मिटा सकें , कुछ हद तक सफल भी हुईं , पर कहते हैं न कि कुछ तत्व ऐसे हैं जो आदतों
"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 
'घराने' ,
मुरेड़ पर
कि ज़मीर बिक गया 
उन इज़्ज़तदारों का ,
उसके 'कोठे' की चौखट पर"

•(caption)• माँ, बहन, बेटी, सखी, प्रेयसी, पत्नी और न जाने कितने रूप हैं स्त्री के । प्रत्येक रूप में वह सृष्टि की और समाज की पूरक है ,कहने भर मात्र ही सही, पर प्रत्येक वर्ग में सम्मानित है ।वो अलग बात है कि साहित्य व यथार्थ में ज़मीन आसमान का अंतर होता है । 
प्राचीन भारत हो या आधुनिक , समय बदला , संस्कृतियां बदलीं , वेश भूषाएँ बदलीं , सीधे शब्दों में कहें तो बहुत कुछ बदल गया । परिवर्तन की आबो हवा में वो दम था कि इन आइनों से गर्दिश मिटा सकें , कुछ हद तक सफल भी हुईं , पर कहते हैं न कि कुछ तत्व ऐसे हैं जो आदतों